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4 फरवरी- बलिदान दिवस महायोद्धा तानाजी मालसुरे जी.. दक्षिण भारत से क्रूर मुगलों का संहार करते हुए वीरगति मिली तो छत्रपति शिवाजी महराज बोले- "गढ़ आया पर सिंह गया"

वीरता की वो गौरवगाथा जो स्वर्णिम इतिहास में सदा रहेगी अमर.

Rahul Pandey
  • Feb 4 2021 8:48PM
इनका इतिहास बहुत कम पढने को मिलेगा आपको . असल में इनके इतिहास को वो कलमकार लिख भी नहीं सकते हैं जो देश की आज़ादी की वजह अहिंसा को ही बताते हैं . आज बलिदान दिवस है उस महायोद्धा का जिनके दोनों हाथो में तलवार थी और सामने एक साथ कई विधर्मी .. 

फिर भी तलवार तब तक चली जब तक उनकी सांस चली और न सिर्फ मुगल सेना बल्कि उनका साथ दे रहे कुछ गद्दार भी हैरान रह गये थे ये देख कर कि मातृभूमि का प्रेम किसी के लिए प्राणों से भी बढ़ कर है .. भारत में साहस और शौर्य की कहानियों की वैसे कमी नहीं है ये वो कहानियां है जिसको हमारे पूर्वज अपने रक्त की धार से लिख कर गये हैं . 

ये कहानियां हमारे लिए धरोहर हैं लेकिन कुछ साजिशो के चलते हम में से तमाम उसको सहेज कर नहीं रख पाए .. आप एक कहानी को खोजने की कोशिश करेंगे तो आपको एक नहीं बल्कि हजारों कहानियां मिल जायेंगी .. सबसे बड़ी बात यह है कि यह कहानियां भी ऐसी-वैसी नहीं होगी बल्कि ऐसे शौर्य की यह कहानियां होती हैं कि पढ़कर मरता इंसान भी जीवित हो सकता है.

आज हम आपको एक ऐसे ही वीर और बहादुर योद्धा तानाजी मालुसरे की कहानी बताने वाले हैं. वैसे महाराष्ट्र के लोग तो इस नाम से वाकिफ होंगे किन्तु इस नाम से पूरे भारत को वाकिफ होना चाहिए. तो आइये जानते हैं वीर तानाजी मालुसरे की पूरी कहानी और इतना तो निश्चित है कि इस कहानी को पढ़ने के बाद अपने गौरवशाली पूर्वजो को एक बार फिर से याद करेगे और उन साजिशकर्ताओं पर भी आक्रोश आएगा जिन्होंने कुछ लोगों की चाटुकारिता के चक्कर में ऐसे वीरों को विस्मृत कर दिया ..

सिंहगढ़ का नाम आते ही छत्रपति शिवाजी के वीर सेनानी तानाजी मालसुरे की याद आती है। तानाजी ने उस दुर्गम कोण्डाणा दुर्ग को जीता, जो 'वसंत पंचमी' पर उनके बलिदान का अर्घ्य पाकर 'सिंहगढ़' कहलाया। छत्रपति शिवाजी महराज को एक बार सन्धिस्वरूप 23 किले मुगलों को देने पड़े थे। 

इनमें से कोण्डाणा सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। एक बार माँ जीजाबाई ने शिवाजी को कहा कि प्रातःकाल सूर्य भगवान को अर्घ्य देते समय कोण्डाणा पर फहराता हरा झण्डा आँखों को बहुत चुभता है। छत्रपति शिवाजी महराज ने सिर झुकाकर कहा - मां, आपकी इच्छा मैं समझ गया। 

शीघ्र ही आपका आदेश पूरा होगा। कोण्डाणा को जीतना आसान न था; पर शिवाजी के शब्दकोष में असम्भव शब्द नहीं था। उनके पास एक से एक साहसी योद्धाओं की भरमार थी। वे इस बारे में सोच ही रहे थे कि उनमें से सिरमौर तानाजी मालसुरे दरबार में आये। 

शिवाजी ने उन्हें देखते ही कहा - तानाजी, आज सुबह ही मैं आपको याद कर रहा था। माता की इच्छा कोण्डाणा को फिर से अपने अधीन करने की है। तानाजी ने 'जो आज्ञा' कहकर सिर झुका लिया। यद्यपि तानाजी उस समय अपने पुत्र रायबा के विवाह का निमन्त्रण महाराज को देने के लिए आये थे; पर उन्होंने मन में कहा - पहले कोण्डाणा विजय, फिर रायबा का विवाह; पहले देश, फिर घर। 

वे योजना बनाने में जुट गये। 4 फरवरी, 1670 की रात्रि इसके लिए निश्चित की गयी। कोण्डाणा पर मुगलों का सेनापति 1,500 सैनिकों के साथ तैनात था। तानाजी ने अपने भाई सूर्याजी और 500 वीर सैनिकों को साथ लिया। दुर्ग के मुख्य द्वार पर कड़ा पहरा रहता था।

पीछे बहुत घना जंगल और ऊँची पहाड़ी थी। पहाड़ी से गिरने का अर्थ था निश्चित मृत्यु। अतः इस ओर सुरक्षा बहुत कम रहती थी। तानाजी ने इसी मार्ग को चुना। रात में वे सैनिकों के साथ पहाड़ी के नीचे पहुँच गये। उन्होंने 'यशवन्त' नामक गोह को ऊपर फेंका। उसकी सहायता से कुछ सैनिक बुर्ज पर चढ़ गये। 

उन्होंने अपनी कमर में बँधे रस्से नीचे लटका दिये। इस प्रकार 300 सैनिक ऊपर आ गये। शेष 200 ने मुख्य द्वार पर मोर्चा लगा लिया। ऊपर पहुँचते ही असावधान अवस्था में खड़े सुरक्षा सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया गया। इस पर शोर मच गया। मुग़ल सेनापति और उसके साथी भी तलवारें लेकर भिड़ गये। 

इसी बीच सूर्याजी ने मुख्य द्वार को अन्दर से खोल दिया। इससे शेष सैनिक भी अन्दर आ गये और पूरी ताकत से युद्ध होने लगा। यद्यपि तानाजी लड़ते-लड़ते बहुत घायल हो गये थे; पर उनकी इच्छा मुगलों के सेनापति को अपने हाथों से दण्ड देने की थी। जैसे ही वह दिखायी दिया, तानाजी उस पर कूद पड़े। 

दोनों में भयानक संग्राम होने लगा। मुग़ल सेनापति से लड़ते लड़ते तानाजी की ढाल कट गयी। इस पर तानाजी हाथ पर कपड़ा लपेट कर लड़ने लगे; पर अन्ततः तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए। यह देख मामा शेलार ने अपनी तलवार के भीषण वार से मुग़ल सेनापति को यमलोक पहुँचा दिया। 

ताना जी तब तक धरती माता की गोद में सो गये थे । जब छत्रपति शिवाजी महराज को यह समाचार मिला, तो उन्होंने भरे गले से कहा - गढ़ तो आया; पर मेरा सिंह चला गया। तब से इस किले का नाम 'सिंहगढ़' हो गया। किले के द्वार पर तानाजी की भव्य मूर्ति तथा समाधि निजी कार्य से देशकार्य को अधिक महत्त्व देने वाले उस वीर की सदा याद दिलाती है। आज महायोद्धा तानाजी मालसुरे जी के बलिदान दिवस पर उनको बारंबार नमन और वन्दन करते हुए उनकी यशगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प सुदर्शन परिवार लेता है .

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