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"यदि जेल में कोई मुझे एक पिस्टल पहुचा दे तो ब्रिटिश हुकूमत को सदियों तक बुरे सपने आएँगे”- “ये थे हमारे राम प्रसाद बिस्मिल” . जयंती विशेष

क्या सच में चरखे से ही आई थी आज़ादी ?

Rahul Pandey
  • Jun 11 2020 12:01PM

बलिदान’, यह एक महान शब्द है। यह ऐसा शब्द जिसमें समर्पण, भक्ति और प्रेरणा का आदर्श निहित है। इस महान शब्द को उच्चार करते ही भारतमाता के चरणों में अपना सर्वस्व न्योछावर करनेवाले क्रांतिकारियों का चेहरा आंखों के सामने आ जाता है। याद आता है उस गीत की पंक्तियां जो आज भी युवा हृदय को झकझोर देता है, उत्साह से भर देता है। वह गीत है, – “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है”. आज राम प्रसाद बिस्मिल जी की जयंती पर ये एलान खुद से ही लोगों की जुबान पर आ गया है. वो बिस्मिल जी जिनकी वीरता को चरखे के गुणगान में दबाने का प्रयास किया गया. 

स्वतंत्रता आन्दोलन में सशस्त्र क्रांति करनेवाले क्रांतिकारियों के पास इतनी धनराशी नहीं होती थी कि वे उन लोगों का भरण पोषण कर सकें जो अपना पूरा समय देश-सेवा के कार्यों में समर्पित करते थे। कभी-कभी क्रांतिकारियों को भूखा भी रहना पड़ता था। क्रांतिकारियों को सम्पर्क, पत्राचार, हथियार आदि के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता रहती थी। धन के अभाव में ये क्रांतिकारी मेहनत-मजदूरी कर धन एकत्रित करते थे। इसके बावजूद भी क्रांतिपथ पर धन का अभाव महसूस हुआ तो क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के कब्जेवाले सरकारी खजानों को वापस लेने की योजना बनाई . ये वही खजाना था जिसको लुटेरे अंग्रेज भारतीयों से ही लूट कर उलटे उन्हें ही लुटेरा बोलते थे.. 

फांसी लगने के एक दिन पहले रामप्रसाद की माँ मूलमति उनसे मिलने गई। माँ को देखकर रामप्रसाद की आंखों से आंसू निकल आए। रामप्रसाद के आंखों में आंसू देखकर माँ बोली, “बेटा यह क्या ? मैं अपने पुत्र को नायक मानती हूं। मैं सोचती थी कि मेरे बेटे का नाम सुनकर अंग्रेज सरकार भय से कांपने लगाती है। पर यह मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरा पुत्र मृत्यु को सामने देखकर डर जाएगा।यदि तुम्हें इस तरह रोते हुए मौत को गले लगाना था तो इस राह पर चले ही क्यों?” रामप्रसाद की माँ के इस वचन को सुनकर पास खड़े सैनिक दांग रह गया। रामप्रसाद ने उत्तर देते हुए कहा, “मेरी प्यारी माँ, ये डर के आंसू नहीं है और न ही मुझे मृत्यु से डर लगता है। यह तो प्रसन्नता के आंसू हैं – ये आप जैसी बहादुर माँ का पुत्र होने की ख़ुशी है जो आँखों से अश्रु बनकर छलक पड़ी।”

देश पर बलिदान हुए इस बलिदानी की यह रचना: –
कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे,  आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।
हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों से,  तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे।
बेशस्त्र नहीं है हम, बल है हमें चरखे का, चरखे से जमीं को हम, ता चर्ख गुँजा देंगे।
परवा नहीं कुछ दम की, गम की नहीं, मातम की, है जान हथेली पर, एक दम में गवाँ देंगे।
उफ़ तक भी जुबां से हम हरगिज न निकालेंगे, तलवार उठाओ तुम, हम सर को झुका देंगे।
सीखा है नया हमने लड़ने का यह तरीका,  चलवाओ गन मशीनें, हम सीना अड़ा देंगे।
दिलवाओ हमें फाँसी, ऐलान से कहते हैं, खूं से ही हम शहीदों के, फ़ौज बना देंगे।
मुसाफ़िर जो अंडमान के तूने बनाए ज़ालिम,  आज़ाद ही होने पर, हम उनको बुला लेंगे।

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