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दिवाली, पटाखे, परंपरा और प्रदूषण... एक षड्यंत्र का विश्लेषण

दिवाली, पटाखे, परंपरा और प्रदूषण.. एक षड्यंत्र का वैज्ञानिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विश्लेषण

Suresh Chavhanke
  • Nov 4 2021 5:02PM

दिल्ली में कुछ छोटे छोटे से बच्चों ने पटाखे फोड़े तो उनके माता-पिता को गिरफ्तार किया गया। लेकिन आज तक कई बम फोड़ने वाले आतंकवादियों के माँ-बाप को कभी भी गिरफ्तर नहीं किया गया। तो मैंने तय किया कि इस विषय पर विस्तार से रिसर्च करके लिखूंगा। जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ के तौर पर विविध सबूतों-संदर्भों के साथ न्यायालय में भी उपयोगी साबित होगा।

 

इतिहास

 

पटाखे विरोधी कहते हैं कि यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है कि हमने ही पटाखे फोड़ना शुरू किया है। यह अभी -अभी शुरू हुआ है तो बंद भी हो सकता है। वामपंथी बुद्धि भेदी आदतों अनुसार झूठ फैलाते हैं कि चीनी लोग भूतों को भगाने के लिए पटाखों का उपयोग करते थे। हमने उनसे यह कला ली है। मैं उनके लिए पटाखों का कई हज़ारों वर्षों का इतिहास आपके सामने रख रहा हूँ।

हालाँकि जो पटाखों की परंपरा, प्रचलन को लेकर उदार नहीं हैं, पर पूर्वग्रह और षड्यंत्रों से भी नहीं जुड़े हैं वे निष्पक्ष इतिहासकार, शोधकर्ता मानते हैं कि दिवाली पर्व की महान उत्सवधर्मिता के साथ पटाखों और आतिशबाजी का जुड़ाव शताब्दीयो पुराना है।

पृथ्वी के प्राचीनतम शब्द संग्रह ऋग्वेद और अन्य वेद इतिहास, संस्कृति, दर्शन के जीवित प्रमाण हैं।

वेदों में पटाखे नामक शब्द भले ही ना हो, परंतु वे तत्कालीन कला- शिल्पों की झांकियाँ आज भी उपलब्ध हैं। दक्षिण भारत से लेकर कई देशों में बने स्थापत्य कलाओं में आज की आतिशबाज़ी अनुरूप चित्रों का स्पष्ट चित्रांकन है।

 

चाणक्य (चौथी शती ई.पू.) अपनी सुप्रसिद्ध कालजयी कृति 'अर्थशास्त्र' में अग्नि चूर्ण का उल्लेख करते हैं। जिसे सॉल्ट पीटर अर्थात पोटैशियम नाइट्रेट कहा जाता है। जो अति ज्वलनशील पदार्थ है और मैदान में शत्रु के विरुद्ध लड़ने में उपयोगी होता है। इस संदर्भ के साथ उन्होंने उसका सविस्तार उल्लेख किया हुआ है।

 

नील मत पुरान -(छठवीं शताब्दी ) के इस कश्मीरी ग्रंथ में आतिशबाज़ी से पितरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का स्पष्ट उल्लेख है। यह परम्परा आज भी चल रही हैं। 

चीनी साहित्य - (सातवीं शताब्दी ) में लिखा गया है कि पोटेशियम नाइट्रेट का उपयोग करके ही नीले रंगों की ज्वाला निर्मित कर उससे आनंद उत्सवों मनायें जाते हैं। 'Military Transition in Early Modern India'- इस पुस्तक में कौशिक रॉय जी इस संदर्भ को लिखते हैं।

 

ओडिशा के राज परिवार के गजपति प्रताप रुद्रदेव (चौदहवीं शताब्दी) “कोतुक चिंतामनी” नामक संस्कृत ग्रंथ में दिवाली के समय पटाखों की आतिशबाज़ी का वर्णन लिखते हैं।

 

संत एकनाथ (सोलहवीं शताब्दी) “रुक्मिणी स्वयंवर” में पटाखों की आतिशबाज़ी का स्पष्ट और बहुत विस्तार से उल्लेख करते हैं। संत एकनाथ जी का उल्लेख मराठी संत साहित्य के साथ हीं गुरूग्रंथ साहब एवम आसपास के कई देशों के साहित्यों में हैं। कोई विरोधी भी उनके ऊपर अविश्वास या विरोध नहि करता हैं।  

 

छत्रपति शिवाजी महाराज जी के राज्याभिषेक ( 6 जून, 1674) में उसके वर्णन हैं। पूर्व तैयारी के वर्णन में लिखा गया है कि प्रभू रामचंद्र जी अयोध्या में ही आए थे। तब जो दीपावली मनाई गई थी जिस प्रकार की सजावट शोभा एवम् आतिशबाज़ी की गई थी वही सब कुछ करना है और समारोह संपन्न होने के बाद भी इसका उल्लेख मराठों की बखर, शिव साहित्य के साथ ही कई ऐतिहासिक ग्रंथों में किया गया है।

 

औरंगज़ेब ने  (22 नवम्बर, 1665) को गुजरात के सूबेदार को लिखित आदेश देकर अहमदाबाद परगना में हिंदू श्रद्धालुओं को परंपरा के अनुसार दिए जलाने, पटाखे फोड़ कर आतिशबाजी करने पर प्रतिबंध का स्पष्ट आदेश दिया था।

 

पेशवा / मराठा सरदारों (सोलहवीं शताब्दी) की कई पुस्तकों में, मराठा बखर में कई बड़े-बड़े महान योद्धाओं के दिवाली और पटाखा संबंधी उल्लेख मिलते हैं । सबसे सुप्रसिद्ध उल्लेख एक महान योद्धा महादजी शिन्दे जी कोटा राजस्थान में होने वाले दिवाली महोत्सव के रूप में “पटाखों की लंका” के रूप में करते हैं। वहाँ के राजा चार दिनों तक दीपावली मनाने की बात भी बताते थे। इस सार्वजनिक आतिशबाजी को देखने एकत्र होते थे। साथ हीं लोग व्यक्तिगत, पारिवारिक समारोह भी करते थे। 

बड़ोदा के गायकवाड़ राजा जी ने अपने विवाह में उस समय के तीन हज़ार रुपयों की आतिशबाजी करने का उल्लेख मिलता हैं। इस तरह के कई हज़ार संदर्भ मैन दे सकता हुँ। साथ हीं इन ऐतिहासिक संदर्भों पर मैं किसी के साथ भी शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार हूँ कि पटाखे कोई १००/५० वर्षों पुरानी घटना नहीं है। इसका संदर्भ हजारों वर्ष पीछे तक है।

इसके प्राचीनतम प्रमाण हैं। 

समकालीन समय में पुणे स्थित भंडारकर प्राच्य शोध संस्थान (भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट) से जुड़े रहे विद्वान इतिहासकार पीके गौड़ जी के महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘द हिस्ट्री ऑफ फायरवर्क्स इन इंडिया बिटवीन AD 1400 एंड 1900’ (1953) में भी प्रामाणिक संदर्भ देकर पटाखों की महान परंपरा को विस्तार से उल्लेखित किया गया है।

 

परंपरा

 

यहाँ मैं इतिहास और परंपराओं को जानबूझकर अलग लिख रहा हूँ। इतिहास मैंने शताब्दियों और तिथियों के साथ बताया हैं। सांस्कृतिक एवम धार्मिक परंपराओं के दृष्टिकोण से प्रभु रामचंद्र जी की दिवाली आगमन के पहले की कई घटनाओं पर आतिशबाज़ी एवं उपहारों के आवाज़ से स्वागत करने की परंपरा का उल्लेख मिलता है। जो आज भी हिन्दुस्तान के राष्ट्रपति से लेकर कई देशों के राष्ट्रपति के सम्मान में भी बजायी जाती है। अगर पहले राजा और आज राष्ट्रपति के लिए तोपों की सलामी दी जाती है तो आम आदमी उससे कम आवाज़ का कुछ तो बजाता हीं होगा। जैसे दुल्हा विवाह मंडप के द्वार पर आने पर पटाखे फोड़े जाते हैं या कई नेताओं के जीतने पर भी पटाखे फोड़े जाते हैं।

राजस्थान के मीणा समाज के लोग आज भी अपने पितरों के लिए आकाश में उड़ने वाले पटाखा फोड़ते हैं । सार्वजनिक कार्यक्रम के लिए मैदान को भी नागौर क़िले के पास रिज़र्व /आरक्षित रखा गया है।

सुदूर पूर्वोत्तर में रहने वाले वनवासी हों या पश्चिम में स्थापित आधुनिक राजे-रजवाड़े हों उन सभी परंपराओं में दिए जलाना, पटाखे फोड़ना, आतिशबाज़ी करना इसकी महान परंपरा लंबे समय से चली आ रही है।

 

वैज्ञानिक

 

ध्वनिं तरंगो का उपयोग हम कई प्रकार से करते हैं। सोनोग्राफ़ी से शरीर के अंदर के चित्र बनाने से लेकर ध्वनि को इलेक्ट्रो मैग्नेटिक तरंगों में बदलाव कर हम आवाज़, इंटरनेट जैसे वायरलेस तकनीक का भी उपयोग करते हैं हीं! वैसे हीं पटाखों के आवाज़ से ध्वनि स्वच्छता, जिसे हम (Sound Sanitization) कर सकते हैं। कोरोना के कारण सभी लोग तरल पदार्थ/ केमिकल स्वच्छता (Liquid Sanitization) को जानते-समझते और मानते भी हैं। यह वैसे ही हैं। Sound Sanitization का उपयोग हम प्रतिदिन की दिनचर्या में करते ही हैं, पर ध्यान नहीं देते। इसलिए षड्यंत्रकारियों के आरोप में फँस जाते हैं। Sound Sanitization से हम मच्छरों, चूहों से लेकर कई सूक्ष्म जीव जंतुओ को भगाने / मारने का कार्य करते हैं। अर्थात ध्वनि प्रभाव से यह सम्भव है।

ध्वनि के विभिन्न प्रकार के तरंगों का उपयोग कई प्रकार के उपचारों में भी हम करते हैं। सबसे सामान्य उदाहरण है। मंदिरो में लगा “घंटा/ घंटी” जिससे हमारे मस्तिष्क में उठ रही अनावश्यक तरंगों और उससे उत्पन्न विचारों को बदलने की शक्ति होती है। इसलिए कितना भी विकास क्यों ना हो, लाखों वर्षों से घंटा हमारे साथ बना है।

इसी तरह पटाखों के तेज ध्वनि से हमारे मन मस्तिष्क में उठ रहे तरंगों और उससे उत्पन्न विचारों, बीमारियों पर भी सकारात्मक परिणाम होता है।

 

मनोवैज्ञानिक

 

हमारा मन सबसे जटिल तंत्र है। उसकी कोई शल्यक्रिया नहीं कर सकता है। परंतु कई प्रकार से उस पर प्रभाव निर्माण करने और उसे परावर्तित करने, प्रेरणा देने के लिए हम ध्वनि के विभिन्न स्वरों/ तरंगों का उपयोग करते हैं। अगर प्रेम से पुकारने का सकारात्मक या क्रोध से चिल्लाने का नकारात्मक परिणाम होता है तो पटाखों की आवाज़ का भी परिणाम हमको स्वीकार करना चाहिए। विज्ञान तो उसे स्वीकार भी करता है और उसका उपयोग भी करता है।

गीत संगीत भी मानसोपचार ही है। कोई भी छोटा बच्चा प्रारम्भ में पटाखों के तेज आवाज़ से डरता है। लेकिन अगर वह स्वयं पटाखा फोड़े तो उसका डर धीरे-धीरे कम होता जाता हैं। आप क्या चाहते हैं? बच्चे के मन में भय क़ायम रहे और जब भी कहीं पर भी पटाखा फूटे तो वह बड़ा होने के बाद भी असहज अनुभव करे? या बचपन में हीं वह पटाखा फोड़ कर अपने आप को मज़बूत करे? जीवन से डर को दूर करने के प्रयास जब बचपन से हीं प्रारम्भ हो तो वह उसकी आदत बन जाते हैं। यह भी ध्यान रखें, जो बच्चा पटाखों से डरता हो वह आत्मरक्षा में भी बंदूक़ नहीं चला सकता। किसी भी आवाज़ से उसका डर उसे कमजोर बनाएगा। तो आपका वह प्यारा बच्चा बम फोड़ने वालों से कैसे बचेगा? कैसे लढ़ेगा? क्या आप उसके कल होने वाले पराजय को आज, बचपन में हीं क्यों नहीं बदलना चाहते?

साथ ही यह भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समझना आवश्यक है कि जब अन्य देश-प्रदेशों में पटाखे फूटते हों और बच्चे अपने घर पर नहीं फोड़ पाते हों तो उन्हें निराशा अनुभव होती है। जो उसके संपूर्ण विकास में अधूरापन की अनुभूति के रूप में सदैव रहती है।

 

सामाजिक 

 

किसी भी व्यक्ति के जीवन में उमंग, आनंद उत्साह के लिए उत्सवों की रचना की गई हैं। वह प्रकृति पूरक व्यवस्था व्यक्ति के लिए जितनी आवश्यक है, उतनी ही समाज के लिए भी आवश्यक है। हिंदू समाज मृत समाज नहीं है। यहाँ कई चीजों के पीछे छोड़ आगे बढ़ने और नित नया प्रारंभ करने के लिए सामाजिक परंपराओं को धार्मिक तिथियों के साथ जोड़ कर रचा गया है। बल्कि हमारे व्यक्तिगत जीवन से बड़ा हमारा सामाजिक जीवन अनिवार्य है। उस में पटाखे और आतिशबाजी की लंबी एवं व्यापक परंपरा सी बनी है। इसलिए यह मुद्दा सामाजिक दृष्टि से भी विशेष महत्वपूर्ण है।

 

धार्मिक

 

हिंदू पंच महाभूतों को मानता है। उस में से एक अग्नि का पूजक है। इसके विभिन्न रूपों को वह अपने धार्मिक मान्यताओं में स्थान देते आया है। चाहे अगरबत्ती हो, धूप - दीप हो, यज्ञ हो या अंतिम संस्कार हो। हिंदुओं के सभी संस्कारों में अग्नि का स्थान है ही। युद्ध कलाओं में अग्निबान हो या बड़े-बड़े अस्त्रों में अग्नि का भरपूर उपयोग किया गया है। पटाखे और आतिशबाजी उसका एक रूप मात्र है। जो समय के साथ साथ बदलाव के साथ आगे बढ़ रहा है।

भगवान की प्रसन्नता के लिए हमारे पास प्रकृति पूरक कच्छ भी करने की खुली छूट है। हम दकियानूसी और जड़ नहीं हैं। हम जिसमें प्रसन्न होते हैं, हमारा भगवान उससे प्रसन्न होता है। इसलिए कई मंदिरों- मठों के वार्षिक उत्सवों के पूजापाठ में आतिशबाजी एक हिस्सा है। हमारा धर्म किसी एक पुस्तक में सीमित नहीं है। वह समय के साथ सामंजस्य बनाते हुए नित नूतन है।

 

आर्थिक

 

हिन्दुस्तान में यह उद्योग अधिकृत तौर पर तीन हज़ार करोड़ का एवं कैश में चलने वाले मझोले छोटे उद्योगों को जोड़कर छह से सात हज़ार करोड़ रुपये तक का बनता है। ये उद्योग हिन्दुस्तान में बंद होने से कुछ समय बाद विदेशी कंपनियों को फ़ायदा होगा। यह चोरिछुपे चलता रहा तो सरकर को भी कोई फ़ायदा नहि होगा। विशेष करके चीनी कंपनियों द्वारा भी यह पटाखा उद्योग विरोधी माहौल बनाया जाता है। इस भय से प्रदूषण रोकथाम के नए उद्योग को भी बढ़ावा मिलता हैं। 

 

सरकारी रिपोर्ट में पटाखे निर्दोष

 

दिल्ली के प्रदूषण को लेकर कई सरकारी संस्थाओं के रिपोर्ट में कहीं पर भी पटाखे को लेकर साधारण उल्लेख तक नहीं है।

दिल्ल आईआईटी, कानपुर आईआईटी, टिहरी के अलग-अलग रिपोर्ट में प्रदूषण के मुख्य कारण और उनका अनुपात का रिपोर्ट आप को एक गूगल सर्च में मिल जाएगा। 


षड्यंत्र

 

पटाखे तो बहाना है, हिंदू निशाना है। हिंदू संस्कृति निशाने पर है।

हिंदुओं के विभिन्न उत्सव एवं परंपराओं को पहले ही निशाना बनाया गया है। हिंदुस्तान के विभिन्न महानगरों और राज्यों में पटाखों प्रतिबंध के लिए जो लोग आगे आ रहे हैं उसमें ग़ैर हिंदुओं का याचिकाकर्ता होना। जिन संस्थाओं ने पटाखे का विरोध किया है वह विदेशी फ़ंडिंग लेने वाली हैं। विशेष बात यह है कि उन देशों में पटाखों पर बैन नहीं हैं।

सरकारी संस्थाओं के रिपोर्ट में प्रदूषण के लिए आतिशबाजी ज़िम्मेदार नहीं है, पर मीडिया रिपोर्ट में है! मतलब यह रिपोर्ट प्रभावित है।

देश में वायु प्रदूषण को लेकर चर्चा २०१० से ज़्यादा होने लगी तभी से मार्केट में एअर प्यूरिफायर्स का बड़े पैमाने पर विक्रि के लिए उपलब्ध होना क्या दर्शाता हैं?

इस लेख में कई संदर्भों को आपके सामने रखा है। कई चित्रों को भी इसमें स्थान देना था पर पता नहीं पटाखों के विरोधी कॉपीराइट क्लेम कर के इस लेख पर रोक लगा देते। इस लिए इस से संबंधित रिसर्च को आगे बढ़ाने का कार्य मैं आप पर छोड़ता हूँ। आप इसमें अधिक जानकारी जो जोड़ कर इसे अधिक मज़बूत बनाएँ। 

 

सुरेश चव्हाणके
(प्रधान संपादक, सुदर्शन न्यूज)

mail@SureshChavhanke.in 

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