हिंदू धर्म के सबसे महान आध्यात्मिक शिक्षकों में से एक श्री रामानुजाचार्य की जयंती आज शुक्रवार (2 मई 2025) को मनाई जा रही है। इस वर्ष श्री रामानुज आचार्य की 1008वीं जयंती है, जो दुनिया भर के श्री संप्रदाय (वैष्णववाद) के अनुयायियों और भक्तों के लिए एक यादगार अवसर है।
जब भारत धर्म संकट में था, जब वेदांत केवल कुछ सीमित विद्वानों की बपौती बन चुकी थी। तब दक्षिण भारत की पावन भूमि पर एक दिव्य आत्मा ने जन्म लिया, जिसने सनातन के उस अमूल्य ज्ञान को आम जनमानस तक पहुँचाया। वो कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे, बल्कि भगवान नारायण के उपासक, श्रीरामानुजाचार्य थे। जिन्होंने ज्ञान नहीं, भक्ति को आधार बनाया।
श्रीरामानुजाचार्य ने सिर्फ किताबों में धर्म को नहीं बांधा, उन्होंने पूरे भारत की पदयात्रा कर बतलाया कि भगवान तक पहुँचने का मार्ग शुद्ध आचरण, निष्ठा और भक्ति से जाता है। ब्रह्मसूत्र और गीता पर उनका भाष्य 'श्रीभाष्य' आज भी वैदिक परंपरा का अमर स्तंभ है।
वेदांत का ऐसा योद्धा, जिसने ज्ञान को ऊँच-नीच से आज़ाद किया
जहां अन्य संप्रदायों ने धर्म को जातिवादी घेरे में बाँध दिया था, वहीं श्री सम्प्रदाय की नींव रखने वाले रामानुजाचार्य ने श्री महालक्ष्मी को आद्यशक्ति मानकर बताया कि मोक्ष किसी विशेष वर्ग की बपौती नहीं, बल्कि हर भक्त का अधिकार है। 120 वर्ष की दीर्घ जीवन यात्रा में उन्होंने 74 योग्य शिष्य तैयार किए और लाखों नर-नारियों को भक्ति के सागर में डुबो दिया। उनके अनुसार भगवान विष्णु ही परम सत्य हैं- जो हर जीव के भीतर साक्षी रूप में विद्यमान हैं।
गुरु बना कातिल, लेकिन रामानुज को कौन रोक सकता था?
जब कांची में इन्होंने यादव प्रकाश से वेदों का अध्ययन किया, तो अपनी तीव्र बुद्धि के बल पर गुरु की त्रुटियाँ तक सुधार दीं। परिणामस्वरूप वही गुरु ने षड्यंत्र रच बैठा- इनकी हत्या की योजना बनाई गई। लेकिन धर्म की रक्षा करने वाला स्वयं धर्मराज होता है, एक शिकारी दंपति ने इन्हें मृत्यु से बचाया।
जब उनके आध्यात्मिक मार्गदर्शक श्रीयामुनाचार्य का अंत समीप था, तब उन्होंने श्रीरामानुजाचार्य को बुलवाया, लेकिन जब रामानुज पहुँचे, तब तक यामुनाचार्य इस संसार से जा चुके थे। उनके हाथ की तीन उंगलियाँ मुड़ी थीं- संदेश स्पष्ट था:
"भाष्य लिखो, नामों की महिमा बताओ, और दिव्यज्ञान को जन-जन तक पहुँचाओ।" रामानुजाचार्य ने प्रण किया और जीवन भर इस लक्ष्य को ही अपना धर्म बना लिया।
संन्यासी बना, लेकिन आत्मबल से समाज को हिला दिया
गृहस्थ जीवन छोड़ उन्होंने संन्यास लिया और श्रीरंगम जाकर ‘यतिराज’ से दीक्षा पाई। विडंबना देखिए, वही यादव प्रकाश जो कभी उनके प्राणों के पीछे पड़ा था- उसी ने अंत में उनसे दीक्षा लेकर उनके चरणों में शरण ली। रामानुजाचार्य कोई मात्र संत नहीं थे, वे एक विचारधारा थे। उन्होंने दिखा दिया कि धर्म केवल ग्रंथों में नहीं, बल्कि चरित्र, साहस और समाज सेवा में बसता है।