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नारी थी, पर करूणामयी कतई नहीं एलिजाबेथ द्वितीय - के.विक्रम राव

मलिकाये बर्तानिया एलिजाबेथ द्वितीय के गत गुरूवार (8 सितम्बर 2022) को निधन पर साम्राज्य के पूर्व उपनिवेश-समूह (अफ्रीकी, एशियायी, कैरिबियन, दक्षिण अमेरिकी) जो अब सब मुक्त राष्ट्र हैं, की प्रजा में उनके प्रति जनसंवेदना का अभाव ही दिखा। सदियों से इन देशों पर नृशंस और अमानुषिक जुल्म होता रहा।

रजत के.मिश्र , Twitter - rajatkmishra1
  • Sep 12 2022 10:53PM

के. विक्रम राव (वरिष्ठ पत्रकार)

मलिकाये बर्तानिया एलिजाबेथ द्वितीय के गत गुरूवार (8 सितम्बर 2022) को निधन पर साम्राज्य के पूर्व उपनिवेश-समूह (अफ्रीकी, एशियायी, कैरिबियन, दक्षिण अमेरिकी) जो अब सब मुक्त राष्ट्र हैं, की प्रजा में उनके प्रति जनसंवेदना का अभाव ही दिखा। सदियों से इन देशों पर नृशंस और अमानुषिक जुल्म होता रहा। कीनिया की विधिवेत्ता श्रीमती एलिस मूगो ने स्पष्ट कहा भी: ‘‘ महारानी के अवसान पर मैं शोकाकुल नहीं हूं। न होउंगी।‘‘ जोमो केन्याटा (कीन्यीयाई गांधी) के माऊ माऊ विद्रोह के दौरान एलिजाबेथ के राजकाल (1953-60) में ब्रिटिश सैनिकों के दमन से कीनिया के जंगलों में हजारों बच्चों और महिलाओं का कत्लेआम हुआ था। वह जघन्य था। किकियू जाति के बागियों को संगीनों से गोरे सैनिकों ने भोंक-भोंक कर मारा। एलिस मूगो ने पूछा था: ‘‘क्या हम इस नरसंहार को बिसरा सकते हैैं?‘‘ कीनिया से बारह हजार किलोमीटर दूर कैरिबियन (अमेरिका के निकट) द्वीप, खासकर जमैका तथा अन्य वेस्टइंडीस के अश्वेतों, पर जो कहर बर्तानवी सेना ने ढाया था, उसे मूगो बताते है कि वह आज तक युवजन याद करते हैं। जनसंघर्ष के अश्वेत प्रणेता नदान स्पेंसर ने कहा भी थाः ‘‘महारानी उस वक्त अपनी शोरभरी खामोशी के कारण हम सबकी हमदर्दी गवां चुकी थीं। ठीक वैसा ही हुआ। ब्रिटिश गयाना, फाकलैण्ड, एंटिगुआ, इत्यादि अन्य उपनिवेश ने। इन पर एलिजाबेथ के सैनिक-शासक अत्याचार अनवरत करते रहे।‘‘

अतः वास्तविकता यहीं है, औपचारिकता भले ही लगे, कि श्वेत शासकों में दिल से भावनात्मकता नहीं दिखती। वह बुनियादी मानवीय व्यवहार से मेल नहीं खाती। एक लातिनी उक्ति है: ‘‘निल निसी बोनम।‘‘ अर्थात मृत्यु के बाद केवल भला बोलो। सुनने में यह नीक लगता है। तो क्या रावण और कंस, हिटलर और स्तालिन को भी अनिंद्य ही कहा जाये? चूंकि वे मर चुके है।

       इसी परिवेश में भारत के प्रसंग पर भी कुछ गौर कर लें। स्वाधीनता सेनानी दशकों से मांग करते रहे कि जलियांबाग वाले सामूहिक हत्याकाण्ड पर एलिजाबेथ खेद व्यक्त करें, यदि ईमानदारी से माफी नहीं मांगती है तो। इस दुर्मर्ष प्रकरण पर सच्चाई जानकर भारतीयों को खुद पर गर्व और गौरव करने वाले से ज्यादा दिल अवश्य जलेेगा। वे सम्यता के सर पर प्रहार करते रहे हैं। बच्चा-बच्चा जानता है कि जलियांवाला बाग में ब्रिटिश सैन्य जनरल रेजिनाल्ड डायर द्वारा गोलीबारी पाशविक थी, राक्षसी थी। उससे ज्यादा गर्हित और जघन्य कत्लेआम अकल्पनीय है। मगर कैसा कहा, क्या किया मलिका एलिजाबेथ तथा उनके प्रिय पति प्रिंस फिलिप्स ने? उनको तब स्मरण भी कराया गया था कि बैसाखी (13 अप्रैल 1919) में अमृतसर के उद्यान में 1500 लोग गोलियों से भून दिये गये थे, 1200 लोग घायल हुये। उनमें सैकड़ों बच्चे भी थे।

        जनरल डायर ने हन्टर जांच समिति को बताया था कि: ‘‘और अधिक को नहीं मार पाया था क्योंकि मेरे पास गोलियां खत्म हो गयीं थीं।‘‘ जब हंटर जांच समिति की यहीं घमंडभरी उक्ति की रपट पड़ोसी कराची के दैनिक ‘‘सिंध आब्जर्वर‘‘ के सम्पादकीय डेस्क पर पहुंची तो तेलुगुभाषी एडिटर के. पुन्नय्या के अनुज न्यूज एडिटर के. रामा राव ने पढ़ा। उन्होंने अपनी आत्मकथा: ‘‘दि पेन एज माई स्वोर्ड‘‘ (प्रकाशक: भारतीय विद्या भवन) में लिखा ‘‘तब मेरा खून खौल उठा। वीभत्स तो यह था कि इस नरभक्षी जनरल के लंदन लौटने पर उसके ब्रिटिश स्वजनों ने उन्हें बीस हजार रूपये  (आज के दो करोड़) का पर्स भेंट दिया।‘‘

       मगर लोमहर्षक बात तो तब हुयी जब भारतीय स्वतंत्रता का स्वर्णोत्सव (1997) मनाया जा रहा था। महारानी एलिजाबेथ जलियांवाला बाग भी गयीं। तब फिलिप्स ने विवाद सर्जाया। वे बोले: ‘‘मृतकों की संख्या में अतिशयोक्ति है।‘‘ मगर महारानी ने सिर्फ कहा: ‘‘कठिन हादसा था।‘‘ दिल्ली में संसद को अपने उदबोधन में बोलीं: ‘‘जलियांवाला बाग पर मुझे पीड़ा हुयी है।‘‘ बस पीड़ा ? मगर इस राजनीतिक दंपत्ति से लगातार मांग की गयी कि हत्यारे जनरल डायर के कुकृत्य पर वे क्षमा याचना करें। महारानी ने नहीं स्वीकारा। अब उन्हें कौन समझाता कि क्षमा शब्द की तुलना में पीड़ा निहायत हल्का अल्फाज है। क्षमा का न तो कोई पर्यायवाची है न समानार्थी। रानी भारत तीन बार आ चुकी थीं। पति तो सर्वप्रथम 1959 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के खास मेहमान बनकर पधारे थे। मगर इतने क्रूर और दानवी वाकये पर भी उस औरत का दिल द्रवित न हुआ हो ? तो वह रहमदिल और करूणामयी कतई नहीं थीं?

       इसी सिलसिले में निजी चैनल द्वारा गत शुक्रवार की संध्या पर प्रस्तुत ‘‘अब उत्तर चाहिये‘‘ कार्यक्रम में लब्धप्रतिष्ठित एंकर ने गैर-नेहरू वंशीय राष्ट्रनायकों की स्मृतियों की उपेक्षा करने पर एक विस्तृत चर्चा रखी थी। मैंने उदाहरण दिया कि ठीक उसी वक्त जब इंडिया गेट पर राजछत्र के तले नेताजी की प्रतिमा लगायी जा रही थी, तो उसी वक्त हजारों किलोमीटर दूर स्कॉटलैण्ड में महारानी एलिजाबेथ आखिरी सांस ले रही थीं। नरेन्द्र मोदी ने कहा भी था कि ‘‘दासता की निशानियां मिटती जा रहीं है।‘‘ मैं तभी कह बैठा कि इधर नेताजी बोस का स्मारक, उधर एलिजाबेथ महाप्रस्थान। क्या इत्तेफाक है?

       इस पर साथी प्रवक्ता बिफर पड़े कि मृतक के बारे में टिप्पणी नहीं की जाती। मुझे हंसी आ गयी। उन प्रवक्ताओं ने मेरी तरह ब्रिटिश राज की बर्बरता और उत्तराधिकारिनी इंदिरा गांधी की एमर्जेंसीकाल की पाशविकता नहीं देखी शायद। क्योंकि दोनों दृश्य उन लोगों के जन्म के पूर्व की ही घटनायें हैं। इसीलिये याद रखना होगा कि बुरी बात उन लोगों की मौत पर नहीं कही जाती जो हैवानी हरकतें नहीं करते।

लेखक के विक्रम राव वरिष्ठ पत्रकार है।

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