भारत के सामने तालिबान के रूप में एक नयी चुनौती सामने आती दिखाई दे रही है. तालिबान भारत के सामने एक परेशानी इसलिए बन सकता है क्योंकि भारत और तालिबान के बीच 20 सालो में अब तक कोई वार्ता नहीं हुई है. बता दें कि सन 1999 में तालिबानी लड़ाकुओं ने भारत के एक यात्री विमान को अपने कब्ज़े में ले लिया था और उसे अफगानिस्तान के कंधार एयरपोर्ट पर ले जाया गया था.
उस समय वह इलाका तालिबानी लड़ाकुओं के कब्ज़े में था. जिसके बाद से ही भारत ने तालिबान के औपचारिक राजनयिक के साथ साथ सारे सम्बन्ध खत्म कर दिए. बता बड़े कि वह वो समय था जब तालिबानी लड़ाकू पुरे अफगानिस्तान पर धीरे धीरे अपना कब्ज़ा जमाते जा रहे हैं. जिसके बाद भारत के राजनयिकों ने देश छोड़ दिया था. बता दे कि अमेरिका और तालिबान के बीच चलती आ रही बातचीत से भारत की चिंता बढ़ती हुई दिख रही है.अफगानिस्तान के करीब 370 ज़िलों में 50 पर तालिबान का कब्ज़ा है.
इसी साल फ़रवरी में अमेरिका और तालिबान के बीच सहमति भी बन गई. अमेरिकी फ़ौज अफ़ग़ानिस्तान से जा रही है और इस स्थिति ने भारत की चिंता ज़रूर बढ़ा दी है क्योंकि बीते 20 सालों में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में विभिन्न परियोजनाओं और सहायता के रूप में हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च किए हैं.
वहीं अमेरिकी फ़ौज के अफ़ग़ानिस्तान से हट जाने की सूरत में हालात बेशक चिंताजनक हो सकते हैं. भारत ने तालिबान को कभी भी आधिकारिक मान्यता नहीं दी, तालिबान ने कई बार वार्ता की पेशकश की पर भारत ने एक भी वार्ता स्वीकार नहीं की.
यह उम्मीद की जा रही है की सरकार के गठन में तालिबआन की मुख्य हिस्सेदारी होगी ऐसे में भारत ने तालिबान के साथ अपने सम्बन्धो को सामान्य करना शुरू कर दिया है. अफगानिस्तान में जो अभी की सरकार है उससे भारत के सम्बन्ध बहुत बेहतर है. इस कारण भारत तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के सम्बन्धो के बीच संतुलन बनाने पर जोर दे रहा है.
बता दें कि तालिबान का प्रभाव उन्हीं इलाकों में ज़्यादा है जहां पश्तून क़बायली ज़्यादा तादाद में रहते हैं. वहीँ बात करे अगर भारत और अफगानिस्तान की तो भारत हमेशा से ही अफ़ग़ानिस्तान के आम लोगों के साथ ही खड़ा है और पिछले बीस सालों में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के साथ गहरे संबंध स्थापित किए हैं.