एक दौर में जिस बांग्लादेश को उसकी उदार सोच और प्रगतिशीलता के लिए जाना जाता था, आज वहीं देश इस्लामी कट्टरपंथ की आग में झुलसता नज़र आ रहा है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाला बांग्लादेश अब जिहादी एजेंडे की प्रयोगशाला बनता जा रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरा है कट्टर इस्लामी संगठन हिफाजत-ए-इस्लाम, जिसने सत्ता के गलियारों तक पहुंचने की खुली चुनौती दे दी है।
हिफाजत-ए-इस्लाम के संयुक्त महासचिव मामुनुल हक ने खुले मंच से ऐलान किया है कि उनका संगठन देश में शरिया कानून लागू कराए बिना चैन से नहीं बैठेगा। 5 लाख से ज्यादा मजहबी समर्थकों के दम पर वे राजधानी ढाका को जिहादी ताकत का केंद्र बनाने में जुटे हैं। हक ने साफ शब्दों में कहा कि उनका संगठन आगामी चुनाव में संसद में घुसकर ही दम लेगा- और फिर वहां से इस्लामी कानून थोपे जाएंगे।
ढाका में जुटेगी मजहबी फौज
इस्लामी कट्टरपंथी संगठन 27 अप्रैल को ढाका में एक विशाल शक्ति प्रदर्शन करने जा रहा है, जिसे 'सांप्रदायिक सत्ता वापसी' की शुरुआत माना जा रहा है। इनका दावा है कि उनके पास हजारों मदरसों का नेटवर्क है, जो राष्ट्र के हर कोने में मजहबी ज़हर घोलने का काम कर रहा है।
क्या चुनाव लोकतंत्र के लिए या कट्टरपंथियों के लिए होंगे?
हिफाजत-ए-इस्लाम ने धमकी दी है कि यदि चुनाव "स्वतंत्र और निष्पक्ष" हुए तो वे बहुमत से संसद में पहुंचेंगे और वहां से देश को शरीयत की जंजीरों में जकड़ देंगे। कट्टरपंथियों का यह दावा बांग्लादेश की सुरक्षा व्यवस्था और लोकतंत्र दोनों के लिए खतरे की घंटी है।
कौन हैं ये हिफाजती चेहरे?
हिफाजत-ए-इस्लाम कोई आम संगठन नहीं, बल्कि एक ऐसा मजहबी गठबंधन है जो पिछले 15 वर्षों से बांग्लादेश की राजनीति को मजहबी चश्मे से नियंत्रित करने की कोशिश करता रहा है। इसमें मामुनुल हक की 'खलीफत-ए-मजलिश पार्टी' जैसी संगठनों की मौजूदगी है, जो धर्म के नाम पर आतंक का माहौल खड़ा करने में माहिर हैं।
अब सवाल ये है कि क्या बांग्लादेश जैसी बहुसांस्कृतिक और लोकतांत्रिक पहचान रखने वाली राष्ट्र को ये मजहबी कट्टरपंथ निगल लेगा? और क्या अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस खतरनाक उभार पर चुप बैठा रहेगा?