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13 अगस्त: जन्मजयंती महान हिंदू योद्धा दुर्गादास राठौड़ जी.. औरंगजेब की हत्यारी फौज का वध कर के दफ़न कर दिया था मारवाड़ की पवित्र भूमि में

ये निर्विवाद सत्य है कि अगर उस दौर में वीर दुर्गादास राठौर,छत्रपति शिवाजी,वीर गोकुल,गुरु गोविन्द सिंह,बंदा सिंह बहादुर जैसे शूरवीर पैदा नहीं होते तो पुरे मध्य एशिया, ईरान की तरह भारत का पूर्ण इस्लामीकरण हो जाता और हिन्दू धर्म का नामोनिशान ही मिट जाता

Abhay Pratap
  • Aug 13 2021 11:07AM

भारत की भूमि पर धर्म की रक्षा करने वाले, मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व न्योछाबर करने वाले अनेक योद्धाओं और महायोद्धाओं ने जन्म लिया है. अपने दुश्मन को धूल चटाकर विजयश्री हासिल करने वाले इन योद्धाओं ने कभी अपने प्राणों की परवाह नहीं की, लेकिन इसके बाद भी इन योद्धाओं को इतिहास में स्थान नहीं मिल सका. शायद इसके पीछे ये वजह रही होगी कि अगर हिंदुत्व का ये गौरवशाली इतिहास बाहर आ गया, अगर हिन्दुओं ने अपने पूर्वजों के इस महानतम इतिहास को पढ़ लिया तो शायद विधर्मी ताकतें हिन्दुस्थान में अपनी जगह नहीं बना पाएंगी.

सनातनी इतिहास के ऐसे ही एक योद्धा थे, राष्ट्रवीर दुर्गादास राठौड़. वो दुर्गादास राठौड़ जिन्होंने इस देश का इस्लामीकरण करने की मुगल आक्रान्ता औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी. वीर दुर्गादास राठौड़ भारतीय इतिहास मे एक बहुत ही अविस्मरणीय नाम है. वीर दुर्गादास राठौड का जन्म मारवाड़ में करनोत ठाकुर आसकरण जी के घर 13 अगस्त 1638 को हुआ था. भारत भूमि के पुण्य प्रतापी वीरों में दुर्गादास राठौड़ के नाम-रूप का स्मरण आते ही अपूर्व रोमांच भर आता है. भारतीय इतिहास का एक ऐसा अमर वीर, जो स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का पर्याय है, जो प्रलोभन और पलायन से परे प्रतिकार और उत्सर्ग को अपने जीवन की सार्थकता मानता है.

दुर्गादास राठौड़ सही अर्थों में राष्ट्र परायणता के पूरे इतिहास में अनन्य, अनोखे हैं. इसीलिए लोक कण्ठ पर यह बार बार दोहराया जाता है कि हे माताओ! तुम्हारी कोख से दुर्गादास जैसा पुत्र जन्मे, जिसने अकेले बिना खम्भों के मात्र अपनी पगड़ी की गेंडुरी (बोझ उठाने के लिए सिर पर रखी जाने वाली गोल गद्देदार वस्तु) पर आकाश को अपने सिर पर थाम लिया था या फिर लोक उस दुर्गादास को याद करता है,जो राजमहलों में नहीं, वरन् आठों पहर और चौंसठ घड़ी घोड़े पर वास करता है और उस पर ही बैठकर बाटी सेंकता है. वे अपने युग में जीवन्त किंवदंती बन गए थे, आज भी उसी रूप में लोक कण्ठहार बने हुए हैं, सनातन की जीवंत प्रेरणा बने हुए हैं.

दुर्गादास मारवाड़ के शासक महाराजा जसवंतसिंह के मंत्री आसकरण जी के पुत्र थे. उनका सम्बन्ध राठौड़ों की करणोत शाखा से था. आसकरण मारवाड़ के शासक गजसिंह और उनके पुत्र जसवंतसिंह के प्रिय रहे और प्रधान पद तक पहुँचे. उनके तीन पुत्र थे- खेमकरण, जसकरण और दुर्गादास. पिता आसकरण की भांति किशोर दुर्गादास में भी वीरता कूट- कूट कर भरी थी. सन् 1655 की घटना है, जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राजकीय राईका (ऊंटों का चरवाहा) लुणावा में आसकरण जी के खेतों में घुस गए. किशोर दुर्गादास के विरोध करने पर भी उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया, वीर दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर त्वरित गति से उस राज राईका की गर्दन उड़ा दी.

इस बात की सूचना महाराज जसवंत सिंह के पास पहुंची तो वे उस वीर को देखने के लिए उतावले हो उठे और अपने सैनिकों को दुर्गादास को लाने का आदेश दिया. दरबार में महाराज उस वीर की निर्भीकता देख अचंभित रह गए. दुर्गादास ने कहा कि मैंने अत्याचारी और दंभी राईका को मारा है, जो महाराज का भी सम्मान नहीं करता है और किसानों पर अत्याचार करता है. आसकरण ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भयता से स्वीकारते देखा तो वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए. परिचय पूछने पर महाराज जसवंत को मालूम हुआ कि यह आसकरण का पुत्र है. घटना की वास्तविकता को जानकर महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और तलवार भेंट कर अपनी सेना में शामिल कर लिया.

कालांतर में महाराजा जसवंत सिंह दिल्ली के मुग़ल लुटेरे औरंगजेब से मैत्री स्थापित हुई और वे प्रधान सेनापति बने. फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी. वह हमेशा जोधपुर को हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था. सन् 1659 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ हुए विद्रोह को दबाने के लिए जसवंत सिंह को भेजा गया. दो वर्ष तक विद्रोह को दबाने के बाद जसवंत सिंह काबुल (अफ़गानिस्तान) में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही 1678 ई. में वीर गति को प्राप्त हुए. उस समय उनका कोई उत्तराधिकारी घोषित नहीं था. औरंगजेब ने मौके का फायदा उठाते हुए मारवाड़ में अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयत्न किया.

औरंगजेब ने जोधपुर पर कब्जा कर लिया और सारे शहर में लूटपाट, आगजनी और कत्लेआम होने लगा. देखते ही देखते शहर को उजाड़ बना दिया गया. लोग भय और आतंक के कारण शहर छोड़ अन्यत्र चले गए थे. उन्होंने जज़िया कर भी लगा दिया. राजधानी जोधपुर सहित सारा मारवाड़ तब अनाथ हो गया था. ऐसे संकटकाल में दुर्गादास राठौड़ कुँवर अजीतसिंह के संरक्षक बने. दुर्गादास ने स्वर्गीय महाराज जसवंत सिंह की विधवा महारानी तथा उसके नवजात शिशु (जोधपुर के भावी शासकअजीतसिंह) को औरंगजेब की कुटिल चालों से बचाया. दिल्ली में शाही सेना के पंद्रह हजार सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काटते हुए मेवाड़ के राणा राजसिंह के पास परिवार सुरक्षित पहुंचाने में वीर दुर्गादास राठौड़ सफल हो गए.

इससे क्रूर औरंगजेब तिलमिला उठा और उनको पकड़ने के लिए उसने मारवाड़ के चप्पे-चप्पे को छान मारा. यही नहीं उसने वीर दुर्गादास राठौड़ और अजीतसिंह को जिंदा या मुर्दा लाने वालों को भारी इनाम देने की घोषणा की थी. इधर दुर्गादास भी मारवाड़ को आजाद कराने और अजीतसिंह को राजा बनाने की प्रतिज्ञा को कार्यान्वित करने में जुट गए थे. दुर्गादास जहां राजपूतों को संगठित कर रहे थे वहीं औरंगजेब की सेना उनको पकड़ने के लिए सदैव पीछा करती रहती थी. कभी-कभी तो आमने-सामने मुठभेड़ भी हो जाती थी. ऐसे समय में दुर्गादास की दुधारी तलवार और बर्छी कराल-काल की तरह रणांगण में मुगलों के नरमुंडों का ढेर लगा देती थी.

मारवाड़ के स्वाभिमान को नष्ट करने के लिए जोमुग़ल रणनीति तैयार हुई थी, उसे साकार होनादुर्गादास राठौड़ जैसे महान् स्वातन्त्र्य वीर, योद्धा और मंत्री के रहते कैसे सम्भव था? बहुत रक्तपात के बाद भी मुग़ल सेना सफल न हो सकी. अजीत सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर औरंगजेब ने अजीतसिंह की हत्या की ठान ली, औरंगजेब के षड्यंत्र को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और अपने साथियों की मदद से स्वांग रचाकर अजीतसिंह को दिल्ली से निकाल लाये. वे अजीतसिंह के पालन पोषण की समुचित व्यवस्था के साथ जोधपुर राज्य के लिए होने वाले औरंगजेब द्वारा जारी षड्यंत्रों के खिलाफ निरंतर लोहा लेते रहे.

अजीतसिंह के बड़े होने के बाद राजगद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता और स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी, औरंगजेब की ताकत और प्रलोभन दुर्गादास को डिगा न सके. जोधपुर की स्वतंत्रता के लिए दुर्गादास ने लगभग पच्चीस सालों तक संघर्ष किया, किंतु अपने मार्ग से च्युत नहीं हुए. उन्होंने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को न केवल चुनौती दी, कई बार औरंग़ज़ब को युद्ध में पीछे हटाकर संधि के लिए मजबूर भी किया. उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज की छापामार युद्ध भी लड़े और निरन्तर मारवाड़ के कल्याण के लिए शक्ति संचय करते रहे. मारवाड़ के मुक्ति संग्राम के वे सबसे बड़े नायक थे. दुर्गादास राठौड़ के पराक्रम से औरंगजेब बेनूर हो जाता था और दिल्ली की मुगल सल्तनत भी भयाक्रांत हो जाती थी.

दुर्गादास राठौड़ के बारे में कहा जाता है कि उनका खाना-पीना यहाँ तक कि रोटी बनाना भी कभी-कभी तो घोड़े की पीठ पर बैठे-बैठे ही होता था. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी जोधपुर के दरबार में लगा वह विशाल चित्र देता है, जिसमें दुर्गादास राठौड़ को घोड़े की पीठ पर बैठे एक श्मशान भूमि की जलती चिता पर भाले की नोक से आटे की रोटियां सेंकते हुए दिखाया गया है. डा. नारायण सिंह भाटी ने 1972 में मुक्त छंद में राजस्थानी भाषा के प्रथम काव्य दुर्गादास में इस घटना का चित्रण किया है-

तखत औरंग झल आप सिकै, सूर आसौत सिर सूर सिकै, चंचला पीठ सिकै पाखरां-पाखरां, सैला असवारां अन्न सिकै।।

अर्थात् औरंगजेब प्रतिशोध की अग्नि में अंदर जल रहा है. आसकरण के शूरवीर पुत्र दुर्गादास का सिर सूर्य से सिक रहा है अर्थात् तप रहा है. घोड़े की पीठ पर निरंतर जीन कसी रहने से घोड़े की पीठ तप रही है. थोड़े से समय के लिए भी जीन उतारकर विश्राम देना संभव नहीं है. न खाना पकाने की फुरसत, न खाना खाने की. घोड़े पर चढ़े हुए ही भाले की नोक से सवार अपनी क्षुधा की शांति के लिए खाद्य सामग्री सेंक रहे हैं.

अफ़सोस इतना है कि अपने जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा. कहा जाता है कि कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ महाराज अजीतसिंह के कान भर दिए थे, जिससे महाराज अजीत सिंह दुर्गादास से अनमने रहने लगे. इसे देखकर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना उचित समझा और वे मालवा चले गए. वहीं उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे. दुर्गादास कहीं के राजा या महाराजा नहीं थे, परंतु उनके उज्ज्वल चरित्र की महिमा इतनी ऊंची है कि वे कितने ही भूपालों से ऊंचे हो गये और उनका यश तो स्वयं उनसे भी ऊंचा उठ गया.

वीर दुर्गादास का निधन 22 नवम्बर, सन् 1718 को पुण्य नगरी उज्जैन में हुआ और अन्तिम संस्कार उनकी इच्छानुसार उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर किया गया था, जहाँ स्थापित उनकी मनोहारी छत्री आज भी भारत के इस अमृत पुत्र की कीर्ति का जीवन्त प्रतीक बनी हुई है. इस स्मारक की वास्तुकला राजपूत शैली में है तथा एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है. लाल पत्थर से निर्मित इस छत्री पर दशावतार, मयूर आदि को अत्यंत कलात्मकता के साथ उकेरा गया है. आसपास का परिदृश्य प्राकृतिक सुषमा से भरपूर है, इसलिए यह स्मारक एक छोटे से रत्न की तरह चमकता है. दुर्गादास की इस पावन देवली पर दुर्गादास जयन्ती आयोजन के साथ ही समय समय अनेक देशप्रेमी मत्था टेकने के लिए आते हैं.

दुर्गादास ने अपूर्व पराक्रम, बलिदानी भावना, त्यागशीलता, स्वदेशप्रेम और स्वाधीनता का न केवल प्रादर्श रचा, वरन् उसे जीवन और कार्यों से साक्षात् भी कराया. उनके जैसे सेनानी के अभाव में न भारत की संस्कृति और सभ्यता रक्षा संभव थी और न ही आजाद भारत की संकल्पना संभव थी. ये निर्विवाद सत्य है कि अगर उस दौर में वीर दुर्गादास राठौर,छत्रपति शिवाजी,वीर गोकुल,गुरु गोविन्द सिंह,बंदा सिंह बहादुर जैसे शूरवीर पैदा नहीं होते तो पुरे मध्य एशिया, ईरान की तरह भारत का पूर्ण इस्लामीकरण हो जाता और हिन्दू धर्म का नामोनिशान ही मिट जाता. भारत सरकार वीर दुर्गादास राठौड़ के सिक्के और स्टाम्प पोस्ट भी जारी कर चुकी है.

आज भारतमाता के वीर सपूत हिन्दुत्ववीर अमर हुतात्मा दुर्गादास राठौड़ की जन्मजयन्ती पर सुदर्शन परिवार उन्हें नमन वंदन करता है तथा उनकी पराक्रमी शौर्यगाथा को अनंतकाल तक याद रखने तथा लोगों के बीच पहुंचाते रहने का संकल्प लेता है.

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