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काकोरी के क्रांतिकारियों की फांसी के जिम्मेदार थे तसद्दुक हुसैन और मोहम्मद रज़ा नाम के 2 गद्दार..फिर भी- "मत मांगो देशभक्ति का प्रमाण"

इस इतिहास को भी निगल गए बाबर के समर्थक नकली कलमकार..

Rahul Pandey
  • Aug 9 2020 7:34AM

"मत मांगो हम से वफादारी का सबूत" .. ये बातें आपने पिछले कुछ समय से लगातार TV से ले कर मंचो तक सुनी जरूर होगी.. खास कर इन शब्दों का प्रयोग और सही शब्दो मे दुरुपयोग तब किया जाता है जब बंगलादेशी व रोहिग्या आतंकियो की घुसपैठ को सही व जायज ठहराना होता है.. CAA NRC प्रदर्शन में इन जुमलों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया गया था जब सड़को को जाम के बहाने कब्ज़ा करने की साजिश बकायदा रच दी गई है.. फिलहाल किस से सबूत मांगना है और किस से नही, कौन देशद्रोही गद्दार है और किसका इतिहास कलंकित है ये इतिहास व भविष्य दोनों तय करेंगे.. फिलहाल आज जानते हैं हम 2 ऐसे गद्दारो को जिनका इतिहास धूल में दब गया था और वो धूल भारत के वामपंथी सेक्युलरिज़्म की थी, जिसकी आड़ में सब कुछ जायज था..

ये वो इतिहास है जिसे आज तक आप को कभी बताया नहीं गया था .. उस कलम का दोष है ये जिसने नीलाम मन से और बिकी स्याही से अंग्रेज अफसरों के नामों के आगे आज तक सर लगाया है और देश के क्रांतिकारियों को अपराधी तक लिखा आज़ाद भारत में .. इतना ही नहीं , उन्होंने देश को ये जानने ही नहीं दिया की उनके लिए सच्चा बलिदान किस ने दिया और किस ने दिया है देश को अनंत काल तक पीड़ा पहुंचाने वाला धोखा .. काकोरी की वो क्रांति जिसने देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे क्रांतिकारियों को सामूहिक रूप से फांसी दिलवा कर क्रांतिकारियों को सबसे बड़ी चोट दी थी उस काण्ड में दोषी अंग्रेजो से ज्यादा जो थे उनके नाम को छिपाया गया .

राम प्रसाद बिस्मिल , राजेंद्र लाहड़ी , रोशन सिंह जैसी वीरों को अमरता प्रदान कर देने वाले काकोरी क्रांति ने देश की जड़ें हिला कर रख दी थी . ये वो गूँज थी जो दिल्ली ही नहीं लंदन की तरह भूकंप के जैसी आई थी . ये चुनौती थी ब्रिटिश सत्ता को कुछ वीरों के द्वारा और उनसे वापस ले लिया था अपना ही खज़ाना जिसे उन्होंने लूटा था भारत की गरीब जनता से .. उस समय कई युवा क्रांति के पथ पर आगे आने के लिए तैयार थे और हर जुबान पर चर्चा थी राम प्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों की .. लेकिन उसी समय थे कुछ ऐसे गद्दार जो देश से गद्दारी कर के नमक अदा कर रहे थे अंग्रेजो का।

उन दो प्रमुख गद्दारों में से एक था तसद्दुक हुसैन और दूसरा मोहम्मद रज़ा .. 8 अगस्त 1925 को राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के घर पर हुई एक इमर्जेन्सी मीटिंग में भारतीयों द्वारा ही लूटा गया अंग्रेजी खजाना वापस लेने की एक धमाकेदार योजना बनायी। 9 अगस्त 1925 को इस योजनानुसार दल के ही एक प्रमुख सदस्य राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी ‘आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन’ को चेन खींच कर रोका।क्रन्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खाँ, चन्द्रशेखर आज़ाद व 6 अन्य सहयोगियों ने समूची ट्रेन पर धावा बोलते हुए अंग्रेजो द्वारा देश की जनता से लूटा गया सरकारी खजाना वापस ले लिया गया ..

उस समय अंग्रेजो के यहाँ चाकरी कर रहे कई हिंदुस्तानी सरकारी अधिकारी इस मामले में काकोरी काण्ड के इन क्रांतिकारियों को पकड़ने में असफल रहे थे लेकिन तब सामने आया था तसद्दुक हुसैन जिसे ब्रिटिश सरकार से मेडल आदि लेने की तीव्र इच्छा थी और उस समय वो सीआईडी इंस्पेक्टर के पद पर था .. उसने अंग्रेजो को खुश करने के लिए स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस टीम को अपने साथ लिया और इस मामले को पूरा खोल कर रख दिया .. उसके भारतीय होने के नाते कई स्थानीय लोगों ने उसको वो जानकारियां दे दी जो इन क्रांतिकारियों तक ब्रिटिश पुलिस को पहुंचा दी .. निश्चित रूप से ये कहना गलत नहीं होगा की काकोरी की वीर बलिदानी टोली को पकड़वाने में सबसे ज्यादा हाथ इसी तसद्दुक हुसैन का ही था जिसने अपने भारतीय होने का फायदा भारतीयों से उठाया वर्ण अंग्रेज सिपाहियों को कोई सहायता करने को तैयार नहीं था.

सभी जानकारी तसद्दुक हुसैन के द्वारा देने के बाद अंग्रेज पुलिस ये जान गयी थी की 9 अगस्त 1925 को शाहजहापुर से राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ की पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब तसद्दुक हुसैन द्वारा दी गयी इस खुफिया तौर की जानकारी से इस बात की पूरी पुष्टि हो गई कि राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, जो हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ (एचआरए) का लीडर थे, उस दिन शहर में नहीं था तो 26 सितम्बर 1925 की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से 40 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। इस कार्य के लिए तसद्दुक हुसैन की अंग्रेज अफसरों ने तारीफ की और वो सीना फुला कर अपने कार्य को बड़ा महान समझ कर घूमता रहा.

इसके बाद इन वीरो को जिस जज की अदालत में खड़ा किया गया उसका नाम था मोहम्मद रज़ा जो अंग्रेज जज लुइस शर्ट के साथ फैसला देने के लिए नियुक्त था . इन क्रांतीयक्रियो को पैरवी के लिए एक ऐसा सरकारी वकील दिया गया जो यकीनन इस केस के उपयुक्त नहीं था जिसके चलते इन्हे सज़ा निश्चित थी , इसके चलते ही रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी पैरवी खुद करने का फैसला किया था . ऐसे वकील का देना पहले से ही मन बनाना माना गया इन क्रांतिकारियों को फांसी देने का और इन्हे योग्य वकील न मिलने का दोष निश्चित तौर पर मोहम्मद रज़ा को जरूर जाता है जो उस समय जज की बेंच पर बैठे थे .. उन्हें पता था की इस वीरों को मौत की सज़ा देने से लंदन तक बैठे कई बड़े नाम खुश होंगे और आख़िरकार जो मोहम्मद रज़ा ने सोचा था वो हुआ भी.

आख़िरकार इन वीरो को मृत्युदंड मिला और देश की क्रान्ति की मशाल की लौ तसद्दुक हुसैन व् मोहम्मद रजा जैसे कुछ लोगों ने मिल कर मद्धिम कर दी जिसका दुष्परिणाम एक लम्बे समय तक रहेगा और उसे कभी भी भरा नही जा सकेगा.

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