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अपने ही देश मे "डकैत" कहे गए थे काकोरी के वीर.. किसी को गरीबी के चलते नही मिल रहे थे वकील तो किसी की माँ ने बर्तन माँज कर पाले परिवार

ये सब कुछ इसलिए था क्योंकि बोलबाला था उस समय तथाकथित अहिंसा का.

Rahul Pandey
  • Aug 9 2020 6:31AM

जिस प्रकार आज भाईचारे और तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का बोलबाला इस कदर हावी है कि अपने देवी-देवताओं का नाम लेना भी चरमपंथ और सांप्रदायिकता घोषित कर दी जाती है। जिस प्रकार आज धर्मनिरपेक्षता के तथाकथित सिद्धांतों को इस तरह प्रस्तुत किया जाता है जिसमें हत्यारे लुटेरे बाबर का नाम लेना भाईचारे का प्रतीक और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम का नाम लेना दंगाई मानसिकता प्रमाणित कर दी जाती है ठीक उसी प्रकार उस समय अहिंसा का कुछ ऐसा बोलबाला था जिसके आगे ना तो वीरों के बलिदान का सम्मान किया गया और ना ही  भारत मां के प्रति सर्वस्व न्योछावर कर देने की उनकी सोच को   उचित स्थान दिया गया।

 अगर पूरे विश्व का इतिहास पढ़ा जाए तो हर देश में इतिहास में   अपनी  मातृभूमि के लिए सशस्त्र क्रांति करने वाले वीर बलिदानी  को हर देश ने स्वर्णिम पन्नों में दर्ज किया है लेकिन भारत में अपने देश के लिए प्राण गंवाने वाले वीरों के साथ जो कुछ हुआ वह किसी को ना सिर्फ हैरान कर देगा बल्कि उन्हें रोने पर मजबूर कर देगा। सबसे पहले काकोरी की वीरता में शामिल रहे बलिदानी चंद्रशेखर आजाद के परिवार को अगर देखा जाए तो उनकी मां ने तथाकथित अहिंसा वादियों की वह ताने सुने जिसको सुनकर शायद धरती का भी कलेजा फट जाता। वीर बलिदानी चंद्रशेखर आजाद के वीरगति के बाद उनकी मां को खुलेआम इसी भारतवर्ष में डकैत की मां के नाम से संबोधित किया गया और बताया जाता है कि जीवन के अंतिम चरण में उन्होंने बहुत अभाव में अपने प्राण रो रो कर त्यागे थे।

 राम प्रसाद बिस्मिल के बारे में अगर जान आ जाए तो उनकी खुद की आत्मकथा में उनके ऊपर उन्हीं के एक सहयोगी ने हथियार इसलिए तान दिए थे क्योंकि उनके पास खिलाने के लिए उसको कुछ भी नहीं थे। यह वह समय था जब राम प्रसाद बिस्मिल भुने हुए चने खाकर पूरे दुनिया पर राज कर रहे अंग्रेजों को चुनौती देने के लिए कमर कस रहे थे। यह वही समय था जब भारत के कुछ ऐसा वादियों के कपड़े विदेशों में धुलने के लिए जाया करते थे और कहा यह भी जाता है कि विदेश ने पढ़ाई के दौरान वह जिस भी गेट से निकलते थे उसी गेट पर एक कार उनका इंतजार किया करती थी। इतना ही नहीं कोठी बंगले अथाह पैसा सब कुछ नहीं विरासत स्वरूप मिला था परंतु उनके अहिंसा सिद्धांतों से अलग चलने वाले बिस्मिल को भुने हुए चने खाकर भारत मां को स्वतंत्र कराने का युद्ध लड़ना पड़ा था।

 कमोबेश यही हाल बाकी क्रांतिकारियों के भी थे जिसमें ठाकुर रोशन से और राजेंद्र लहरी भी शामिल है..  इसमें कई क्रांतिकारी तो इतने गरीब थे कि उन्हें सजा केवल इसलिए पड़ गई थी क्योंकि उनके पास अपना पक्ष रखने के लिए वकील नहीं थे। वकील इसलिए नहीं थे क्योंकि वकील का खर्चा उठाने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे..उनके पास पैसे नहीं बल्कि बाहुबल था और वो उसी से लड़ रहे थे .  यद्द्पि चाटुकार कलमकारों ने उन्हें भुला दिया और किताबें रंग दी उनकी गुणगान से जिन्होंने देश को परोक्ष रूप से तबाह कर दिया .. आज देश का मज़हबी, जातिगत, भाषाई आदि रूप में विसंगति उन्ही तथाकथित आज़ादी के ठेकेदारों की ही देन मानी जा सकती है .. फिलहाल किसी का चश्मा , किसी का कोट, किसी की रस्सी भले ही संग्रहालय में सुरक्षित हो परंतु   काकोरी जी की वीरता में कितने बलिदानी यों को सजा हुई थी अभी यह भी ठीक से जानकारी इस देश को नहीं है।

 

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