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28 जून: जन्मदिवस पर नमन है महान दानवीर भामाशाह जी को.. महाराणा प्रताप के बलिदान के साथ इनका दान अनंत काल तक रहेगा अमर

उस महान दानवीर के जन्मदिवस पर उनको बारम्बार नमन करते हुए इस धर्म और राष्ट्र के लिए किया गया उनका दान और बलिदान सदा सदा जनता को सुनाते रहने का संकल्प सुदर्शन परिवार लेता है.

Abhay Pratap
  • Jun 28 2021 10:36AM

जब जब राणा का भाला चर्चा में आएगा तब तब भामा का दान भी याद आएगा. दोनों एक जैसे ही थे महान. ये वो नीव के पत्थर थे जो दिखे तो कभी नहीं लेकिन खडी कर एक चले गये हिंदुत्व की वो बुलंद ईमारत जो आज तक लाखों थपेड़े खा कर भी ज्यो की त्यों खड़ी है. आज उस महान दानवीर भामाशाह का जन्मदिवस है जिन्होने अपनी जमा पूँजी को उस समय धर्ममार्ग पर दान कर दिया था जब अर्थ संकट था धर्म योद्धा महाराणा प्रताप पर. सामने बहुत बड़ा शत्रु था जिसका नाम था अकबर , उसकी क्रूरता और धनलोलुप्त्ता दुनिया जानती थी .. उसका धन अधर्म से जमा किया गया था लेकिन राणा प्रताप धर्म मार्ग पर चल रहे थे जिसके चलते उनके पास संसाधन और अर्थ दोनों सीमित थे.

 

दान की चर्चा होते ही भामाशाह का नाम स्वयं ही मुँह पर आ जाता है, देश रक्षा के लिए महाराणा प्रताप के चरणों में अपनी सब जमा पूँजी अर्पित करने वाले दानवीर भामाशाह का जन्म अलवर (राजस्थान) में 28 जून, 1547 को हुआ था. उनके पिता श्री भारमल्ल तथा माता श्रीमती कर्पूरदेवी थीं. श्री भारमल्ल राणा साँगा के समय रणथम्भौर के किलेदार थे. अपने पिता की तरह भामाशाह भी राणा परिवार के लिए समर्पित थे. एक समय ऐसा आया जब अकबर से लड़ते हुए राणा प्रताप को अपनी प्राणप्रिय मातृभूमि का त्याग करना पड़ा. वे अपने परिवार सहित जंगलों में रह रहे थे. महलों में रहने और सोने चाँदी के बरतनों में स्वादिष्ट भोजन करने वाले महाराणा के परिवार को अपार कष्ट उठाने पड़ रहे थे. राणा को बस एक ही चिन्ता थी कि किस प्रकार फिर से सेना जुटाएँ,जिससे अपने देश को मुगल आक्रमणकारियों से चंगुल से मुक्त करा सकें.

 

इस समय राणा के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या धन की थी. उनके साथ जो विश्वस्त सैनिक थे, उन्हें भी काफी समय से वेतन नहीं मिला था. कुछ लोगों ने राणा को आत्मसमर्पण करने की सलाह दी. पर राणा जैसे देशभक्त एवं स्वाभिमानी को यह स्वीकार नहीं था. भामाशाह को जब राणा प्रताप के इन कष्टों का पता लगा, तो उनका मन भर आया. उनके पास स्वयं का तथा पुरखों का कमाया हुआ अपार धन था. उन्होंने यह सब राणा के चरणों में अर्पित कर दिया. इतिहासकारों के अनुसार उन्होंने 25 लाख रु. तथा 20,000 अशर्फी राणा को दीं. राणा ने आँखों में आँसू भरकर भामाशाह को गले से लगा लिया. राणा की पत्नी महारानी अजवान्दे ने भामाशाह को पत्र लिखकर इस सहयोग के लिए कृतज्ञता व्यक्त की.

 

इस पर भामाशाह रानी जी के सम्मुख उपस्थित हो गये और नम्रता से कहा कि मैंने तो अपना कर्त्तव्य निभाया है. यह सब धन मैंने देश से ही कमाया है. यदि यह देश की रक्षा में लग जाये, तो यह मेरा और मेरे परिवार का अहोभाग्य ही होगा. महारानी यह सुनकर क्या कहतीं, उन्होंने भामाशाह के त्याग के सम्मुख सिर झुका दिया. उधर जब अकबर को यह घटना पता लगी, तो वह भड़क गया. वह सोच रहा था कि सेना के अभाव में राणा प्रताप उसके सामने झुक जायेंगे. पर इस धन से राणा को नयी शक्ति मिल गयी. अकबर ने क्रोधित होकर भामाशाह को पकड़ लाने को कहा.

 

अकबर को उसके कई साथियों ने समझाया कि एक व्यापारी पर हमला करना उसे शोभा नहीं देता. इस पर उसने भामाशाह को कहलवाया कि वह उसके दरबार में मनचाहा पद ले ले और राणा प्रताप को छोड़ दे, पर दानवीर भामाशाह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया. इतना ही नहीं उन्होंने अकबर से युद्ध की तैयारी भी कर ली. यह समाचार मिलने पर अकबर ने अपना विचार बदल दिया. दानवीर भामाशाह से प्राप्त धन के सहयोग से राणा प्रताप ने नयी सेना बनाकर अपने क्षेत्र को मुक्त करा लिया.

 

भामाशाह जीवन भर राणा की सेवा में लगे रहे. महाराणा के देहान्त के बाद उन्होंने उनके पुत्र अमरसिंह के राजतिलक में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी. इतना ही नहीं, जब उनका अन्त समय निकट आया, तो उन्होंने अपने पुत्र को आदेश दिया कि वह अमरसिंह के साथ सदा वैसा ही व्यवहार करे, जैसा उन्होंने राणा प्रताप के साथ किया है. आज 28 जून को उस महान दानवीर के जन्मदिवस पर उनको बारम्बार नमन करते हुए इस धर्म और राष्ट्र के लिए किया गया उनका दान और बलिदान सदा सदा जनता को सुनाते रहने का संकल्प सुदर्शन परिवार लेता है.

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