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11 सितंबर: आज के ही दिन स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में विश्व धर्म संसद को किया था संबोधित तथा दुनिया को कराया था हिंदुत्व की शक्ति का एहसास

वो 11 सितम्बर 1893 का दिन था तथा स्थान था अमेरिका का शिकागो. वहां भाषण दे रहा था एक एक तीस साल का नौजवान, जो अमेरिका में रह रहे भारतीयों को संबोधित कर रहा था. उनका नाम था स्वामी विविकानंद.

Abhay Pratap
  • Sep 11 2021 9:59AM

भाईयों और बहनों! आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है. मैं आप सभी को दुनिया की सबसे पुरानी संत परंपरा की ओर से शुक्रिया करता हूं. मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं. मेरा धन्यवाद उन लोगों को भी है जिन्होंने इस मंच का उपयोग करते हुए कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार भारत से फैला है. वो 11 सितम्बर 1893 का दिन था तथा स्थान था अमेरिका का शिकागो. वहां भाषण दे रहा था एक एक तीस साल का नौजवान, जो अमेरिका में रह रहे भारतीयों को संबोधित कर रहा था. उनका नाम था स्वामी विविकानंद.

 

किसी भी विदेशी सभा में जा कर किसी का सभा को संबोधित करके भाईयों और बहनों कहना एक बड़ी बात हो गई, और इसे बड़ा बनाया स्वामी विवेकानंद ने. 1893 में आज ही शिकागो में हुए विश्व धर्म संसद में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे स्वामी विवेकानंद ने जब भाषण की शुरुआत मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों से की तो पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था. इस भाषण ने दुनिया में भारत की छवि मजबूत की. आज के ही दिन स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में विश्व धर्म संसद के दौरान सबसे दमदार भाषण देकर भारत की पहचान को विश्व में स्थापित किया था.

 

उन्होंने अपने भाषण से भारत के प्रति दुनिया को अपना नजरिया बदलने के लिए मजबूर कर दिया था. उनके भाषण को सुनकर वहां मौजूद सभी लोग बेहद आश्चर्य चकित थे. ऐसा इसलिए भी था क्योंकि इतनी कम आयु में इतना जबरदस्त भाषण देने वाला वहां पर कोई दूसरा नहीं था. इससे पहले शून्य को लेकर भी ऐसा भाषण किसी ने नहीं दिया था. स्वामी विवेकानंद के शिष्यों ने उनकी शिकागो यात्रा के सारे इंतजाम कर लिए थे. शिष्यों ने अपनी गुरू की यात्रा के लिए चंदा कर धन जुटा लिया था. हालांकि, स्वामी विवेकानंद ने शिष्यों का जुटाया हुआ धन लेने से इंकार कर दिया था. उन्होंने शिष्यों से कहा कि वह ये सारा धन गरीबों में बांट दें.

 

बताया जाता है कि इसके बाद विवेकानंद की अमेरिका यात्रा का पूरा खर्च राजपूताना के खेतड़ी नरेश ने उठाया था. कहा ये भी जाता है कि खेतड़ी नरेश ने ही धर्म सम्मेलन में जाने के लिए नरेंद्र को विवेकानंद का नाम दिया था. हालांकि, कुछ लोगों का ये भी मानना है कि नरेंद्र को विवेकानंद का नाम उनके गुरू रामकृष्ण परमहंस ने दिया था. स्वामी विवेकानंद ने 25 साल की आयु में गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया था. इसके बाद उन्होंने पैदल ही पूरे भारत की यात्रा की. स्वामी विवेकानंद ने 31 मई 1893 को मुंबई से अपनी विदेश यात्रा शुरू की. मुंबई से वह जापान पहुंचे. जापान में नागासाकी, कोबे, योकोहामा, ओसाका, क्योटो और टोक्यो का उन्होंने दौरा किया. इसके बाद वह चीन और कनाडा होते हुए अमेरिका के शिकागो शहर में पहुंचे थे.

 

शिकागो में दिए भाषण के मुख्य अंश

 

मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों! आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है. संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूं. धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूं और सभी संप्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूं. मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं जिन्होंने आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं.

 

मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत दोनों की ही शिक्षा दी है. हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं. मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीडि़तों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है. मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था.

 

ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं जिसने महान जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है. भाइयों, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियां सुनाता हूं जिसकी आवृत्ति मैं बचपन से कर रहा हूं और जिसकी आवृत्ति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं.

।।रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।

 

अर्थात् जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं. यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वत: ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है.

।। ये यथा मा प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम। मम वत्मार्नुर्वतते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।।

 

अर्थात् जो कोई मेरी ओर आता है- चाहे किसी प्रकार से हो, मैं उसको प्राप्त होता हूं. लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते है. सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मांधता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं. वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं. यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियां न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता. पर अब उनका समय आ गया है और मैं आंतरिक रूप से आशा करता हूं कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटाध्वनि हुई है वह समस्त धर्मांधता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी उत्पीडऩों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्परिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो.

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