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वीरगति के बाद चंद्रशेखर आज़ाद के परिवार का जो हाल हुआ आज़ादी के कुछ नकली ठेकेदारों द्वारा उसको सुन कर रो देगा देश.. उनकी माँ को बोला गया - "डकैत की माँ"

चंद्रशेखर आज़ाद महान ने इस देश के लिए जो कुछ भी किया उसका मोल संभवतः कभी भी नही चुकाया जा सकता है लेकिन सवाल यहाँ ये जरूर बनता है कि उसके बदले में इस देश की जनता ने उनके लिए क्या किया ?

Rahul Pandey
  • Feb 27 2021 12:59PM

चन्द्रशेखर आजाद : - "मेरी भारत माता की इस दुर्दशा को देखकर यदि अभी तक आपका रक्त क्रोध नहीं करता है, तो यह आपकी रगों में बहता खून है ही नहीं या फिर बस पानी है".

1921 में उनके क्रांतिकारी जीवन का प्रारंभ होता है जबकि छोटी-सी आयु में मजिस्ट्रेट ने उन्हें 15 बेंत लगाने की कड़ी सजा दी थी। वे प्रत्येक बेंत लगने पर 'भारत माता की जय' का नारा लगाते रहे थे। जिस समय गांधी ने देश में आज़ादी के लिए अहिंसक आन्दोलन प्रारंभ किया, उस समय कुछ युवकों ने यह समझा कि इस प्रकार अहिंसा से देश को आजादी नहीं मिलेगी।

उनका विचार था कि ब्रिटिश शासकों के अन्याय और अत्याचार के विरुध्द शस्त्र व्दारा ही मुकाबला करके आजादी हासिल की जा सकती है। इस विचारधारा के युवकों में सरदार भगतसिंह, सुखदेव, शचीन्द्रनाथ सान्याल औररामप्रसाद बिस्मिल आदि के नाम प्रसिध्द हैं।

चंद्रशेखर आजाद ने अपनी फरारी के करीब 5 साल बुंदेलखंड में गुजारे थे। इस दौरान वे ओरछा और झांसी में भी रहे। ओरछा में सातार नदी के किनारे गुफा के समीप कुटिया बना कर वे डेढ़ साल रहे। फरारी के समय सदाशिव उन विश्वसनीय लोगों में से थे, जिन्हें आजाद अपने साथ मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भाबरा गांव ले गए थे। 

यहां उन्होंने अपने पिता सीताराम तिवारी और मां जगरानी देवी से उनकी मुलाकात करवाई थी. सदाशिव, आजाद की मृत्यु के बाद भी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करते रहे। कई बार उन्हें जेल जाना पड़ा। आजादी के बाद जब वह स्वतंत्र हुए, तो वह आजाद के माता-पिता का हालचाल पूछने उनके गांव पहुंचे। 

वहां उन्हें पता चला कि चंद्रशेखर आजाद के बलिदान के कुछ साल बाद उनके पिता की भी मृत्यु हो गई थी। आजाद के भाई की मृत्यु भी उनसे पहले ही हो चुकी थी।  पिता के निधन के बाद आजाद की मां बेहद गरीबी में जीवन जी रहीं थी। उन्होंने किसी के आगे हाथ फैलाने की जगह जंगल से लकड़ियां काटकर अपना पेट पालना शुरू कर दिया था। 

वह कभी ज्वार, तो कभी बाजरा खरीद कर उसका घोल बनाकर पीती थीं। क्योंकि दाल, चावल, गेंहू और उसे पकाने के लिए ईंधन खरीदने लायक उनमें शारीरिक सामर्थ्य बचा नहीं था। सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि उनकी यह स्थिति देश को आजादी मिलने के दो वर्ष बाद (1949) तक जारी रही। 

सदाशिव ने जब यह देखा, तो उनका मन काफी व्यथित हो गया। आजाद की मां दो वक्त की रोटी के लिए तरस रही है, यह कारण जब उन्होंने गांव वालों से जानना चाहा तो पता चला कि उन्हें डकैत की मां कहकर बुलाया जाता है। साथ ही उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था। 

आजाद की वन्दनीय मां की ऐसी दुर्दशा सदाशिव से नहीं देखी गई। वह उन्हें अपने वचन का वास्ता देकर अपने साथ झांसी लेकर आ गए। मार्च, 1951 में आजाद की वंदनीया मां का झांसी में निधन हो गया।  सदाशिव ने उनका सम्मान अपनी मां की तरह करते हुए उनका अंतिम संस्कार खुद अपने हाथों से बड़ागांव गेट के पास के श्मशान में किया। 

यहां आजाद की मां की स्मारक बनी है। लेकिन दुर्भाग्य से आजाद जैसे आजादी के मतवाले को जन्म देने वाली इस राष्ट्रमाता का स्मारक अभी कुछ दिनो पहले ही झांसी में आकार ले पाया है। आज उन   महान वीर बलिदानी    और महायोद्धा के बलिदान दिवस पर सोचने  और समझने का दिन है वीरो के साथ उन विधर्मियो को भी जो अंग्रेजो के गुप्त एजेंट के रूप में काम करते रहे. 

चंद्रशेखर आज़ाद महान ने इस देश के लिए जो कुछ भी किया उसका मोल संभवतः कभी भी नही चुकाया जा सकता है लेकिन सवाल यहाँ ये जरूर बनता है कि उसके बदले में इस देश की जनता ने उनके लिए क्या किया.. न सिर्फ चंद्रशेखर आजाद बल्कि उनके सभी साथियों के बलिदान के बाद उनके परिवारों का यही हाल हुआ था. 

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