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17 जून: पुण्यतिथि पर नमन है राजमाता जीजाबाई को.. भारतवर्ष की वो महान नारी शक्ति जिनके संस्कारों के कारण ही शिवाजी बन सके हिंदवा सूर्य छत्रपति शिवाजी

राजमाता जीजाबाई की पुण्यतिथि पर उनको बारम्बार नमन करते हुए उनकी गौरवगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का तथा आने वाले समय में उनके इतिहास को स्वर्णिम अक्षरों में अंकित करवाने सुदर्शन परिवार संकल्प लेता है.

Abhay Pratap
  • Jun 17 2021 12:36PM

किसी भी सफल व्यक्तित्व के जीवन में माँ का स्थान कितना ऊँचा होता है, इसका अनुमान इतने से ही लगाया जा सकता है कि जहां एक ओर माँ को 'प्रथम गुरु' कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उसके 'पाँव के नीचे स्वर्ग' बताया गया है. इन कथनों में कहीं कोई अतिशयोक्ति नहीं है, क्योंकि प्रमाण के रूप में भारत के इतिहास में ऐसी एक नहीं बल्कि अनेक माताओं के नाम लिखे जा सकते हैं.ऐसा ही एक नाम है राजमाता माता जीजाबाई का. भारत भर में भला ऐसा कौन होगा, जो माँ जीजाबाई के नाम से परिचित न हो. वे छत्रपति शिवाजी महाराज की जननी होने के साथ-साथ उनकी मित्र, मार्गदर्शक और प्रेरणास्त्रोत भी थीं.

 

राजमाता जीजाबाई का सारा जीवन साहस और त्याग से भरा हुआ था. उनके ही संस्कारों के कारण शिवाजी आगे चलकर छत्रपति शिवाजी बने तथा हिंदवा सूर्य कहलाये. जीजाबाई का जन्म 12 जनवरी सन 1598 में सिंदखेड़ नामक गाँव में हुआ था. यह स्थान वर्तमान में महाराष्ट्र के विदर्भ प्रांत में बुलढाणा जिले के मेहकर जनपद के अन्तर्गत आता है. उनके पिता का नाम लखुजी जाधव तथा माता का नाम महालसाबाई था. लखुजी जाधव वीर मराठा कीर्ति के गुणों से सम्पन्न थे. वे अत्यंत पराक्रमी होने के साथ-साथ अत्यधिक महत्वाकांक्षी भी थे. उन्हें अपने कुल पर बड़ा अभिमान था. जीजाबाई बाल्यकाल से ही हिन्दुत्व प्रेमी, धार्मिक तथा साहसी स्वभाव की थीं. सहिष्णुता का गुण तो उनमें कूट-कूटकर भरा हुआ था. इनका विवाह मालोजी के पुत्र शाहजी से हुआ. 10 अप्रैल सन् 1627 को इसी शिवनेर दुर्ग में जीजाबाई ने शिवाजी को जन्म दिया.

 

पति की उपेक्षा के कारण जीजाबाई ने अनेक असहनीय कष्टों को सहते हुए बालक शिवा का लालन-पालन किया. उसके लिए क्षत्रिय वेशानुरूप शास्त्रीय-शिक्षा के साथ शस्त्र-शिक्षा की व्यवस्था की. उन्होंने शिवाजी की शिक्षा के लिए दादाजी कोंडदेव जैसे व्यक्ति को नियुक्त किया. स्वयं भी रामायण, महाभारत तथा वीर बहादुरों की गौरव गाथाएं सुनाकर शिवाजी के मन में हिन्दू-भावना के साथ वीर-भावना की प्रतिष्ठा की. वह छत्रपति शिवाजी महाराज से प्राय: कहा करती थी कि यदि तुम संसार में आदर्श हिन्दू बनकर रहना चाहते हो स्वराज की स्थापना करो. देश से यवनों और विधर्मियों को निकालकर हिन्दू-धर्म की रक्षा करो.

 

मुगल आक्रान्ता औरंगजेब ने जब धोखे से शिवाजी को उनके पुत्र सहित बंदी बना लिया था, तब शिवाजी ने भी कूटनीति तथा छल से मुक्ति पाई और वे जब संन्यासी के वेश में अपनी मां के सामने भिक्षा लेने पहुंचे तो मां ने उन्हें पहचान लिया और प्रसन्नचित होकर कहा कि अब मुझे विश्वास हो गया है कि मेरा पुत्र स्वराज्य की स्थापना अवश्य करेगा. हिंदवी साम्राज्य में अब कुछ भी विलंब नहीं है. अंत में राजमाता जीजाबाई की साधना सफल हुई. शिवाजी ने महाराष्ट्र के साथ भारत के एक बड़े भाग पर स्वराज्य की स्वतंत्र पताका फहराई, जिसे देखकर जीजाबाई ने शांतिपूर्वक परलोक प्रस्थान किया. वस्तुत: राजमाता जीजाबाई ही स्वराज्य की ही देवी थीं.

 

14 वर्ष के शिवाजी ने एक दिन रोहिडेश्वर के शिव मंदिर में अपने रक्त से शिवलिंग का अभिषेक कर भारत को स्वतंत्र करा "हिन्दवी- स्वराज्य" स्थापित करने की प्रतिज्ञा ली. दो साल बाद उन्होंने तोरणा का किला जीत लिया. इसके बाद शुरू हुआ चारों ओर समुद्र की तरह फैले तुर्क , पठान , अफगान और मुगल आक्रमणकारीयों से एक लम्बा संघर्ष तथा तीस वर्षों के भीषण संघर्ष की परिणिति विक्रमी संवत 1731 की ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी के दिन रायगढ के किले में हुई जब छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ. इन तीस वर्षों में कई उतार-चढाव आये , कई भयंकर संकट आये , किन्तु प्रत्येक संकट में असीम धैर्य का परिचय देते हुए जीजाबाई शिवाजी का मार्गदर्शन करती रहीं , उन्हें प्ररेणा देती रहीं. शिवाजी पन्हालगढ में छह महीने तक घिरे रहे , उधर राजगढ में जीजा माता धैर्य के साथ स्वराज्य की व्यवस्थाएं चलाती रहीं.

 

शाहजी की मृत्यु के समय भी जीजाबाई ने धैर्य धारण किया तथा स्वराज्य के पोषण में लगी रही. छह मास की आगरा यात्रा में दो महीने तो महाराज शिवाजी औरंगजेब की कैद में रहे. जीजा माता ने उस समय भी जबर्दस्त धैर्य और मानसिक संतुलन का परिचय देते हुए स्वराज्य की जनता का मनोबल टूटने नहीं दिया. शिवाजी के सभी साथी तानाजी मालसुरे , येसाजी कंक , बाजीप्रभु देशपांडे , दादा नरसीप्रभु , नेताजी पालकर , प्रताप राव गुर्जर , हमबीरराव मोहिते , मुरारबाजी आदि भी उनके मातृत्व स्नेह प्राप्त करते थे. युद्ध में प्रताप राव की मृत्यु हो जाने पर जीजामाता ने प्रताप राव की कन्या का विवाह शिवाजी के छोटे पुत्र राजाराम से करवाया. समय-समय पर सभी को उचित पुरस्कार देकर वे स्वराज्य के सेनानियों का उत्साह बढाती रहती थीं.

 

जीजामाता ने इस प्रकार अपने मातृत्व का विस्तार कर हिन्दवी-स्वराज्य की मजबूत आधार-शिला रख दी. जीजाबाई और शिवाजी के बारे में जितना लिखा जाए उतना कम है. वीरमाता जीजाबाई का जीवन गंगाजल की तरह निर्मल और पवित्र था. साथ ही दीपक की स्निग्धता और सूर्य की प्रखरता भी उनमें विद्यमान थी. भारत भूमि पर हिंदवी स्वराज्य की स्थापना करने का सपना जीजाबाई ने शिवा की आँखों से देखा. मुगल आदिलशाह और निजामशाह ने अपने अत्याचारों से हिंदुओं पर कहर बरपाया था. ऐसे में हिंदुओं की रक्षा करने का बीड़ा शिवाजी ने बाल्यावस्था में ही उठा लिया था. शिवाजी की वीरता, निडरता, कार्य- कुशलता, रण-चातुर्य आदि सब गुण जिजाउ के संस्कारों से ही उनके खून में उतरे थे. जिजाउ केवल राजमाता या शिवाजी की ही माता नहीं थीं अपितु स्वराज्यमाता भी थीं.

 

स्वराज्य के निर्माण में वह आदिशक्‍त‌ि और प्रेरणा की स्रोत थीं. शिवाजी महाराज को पिता के साथ रहने का अवसर बहुत कम मिला लेकिन माता जीजाबाई की छत्रच्छाया उनपर हमेशा रही. शिवाजी की मातृभक्‍त‌ि और जिजाउ का पुत्र-प्रेम-दोनों ही अतुलनीय थे. 17 जून 1674 को आज के ही दिन 76 साल की आयु में राजमाता जीजाबाई इस संसार से सदा सदा के लिए स्वर्ग सिधार गयी. आज राजमाता जीजाबाई की पुण्यतिथि पर उनको बारम्बार नमन करते हुए उनकी गौरवगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का तथा आने वाले समय में उनके इतिहास को स्वर्णिम अक्षरों में अंकित करवाने सुदर्शन परिवार संकल्प लेता है.

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