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बलिदान दिवस विशेष- डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को गिरफ्तार कराया था नेहरू के मित्र शेख अब्दुल्ला ने. फिर मुखर्जी कभी नहीं लौटे

हैरानी की बात ये है कि अभी भी उनकी मृत्यु बनी हुई है एक बड़ा रहस्य.

Rahul Pandey
  • Jun 23 2020 6:33AM
ध्यान देने योग्य है कि आज की अधिकांश युवा और किशोर पीढ़ी जिसने कश्मीर के नाम पर सिर्फ अटूट और अभिन्न अंग होने की भावुक लोरियां ही सुनी हैं, उनके लिये डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक अपरिचित, अनजाना, अनसुना, अनपढ़ा और अबूझ नाम हो सकता हैं, किंतु तारीख की निगाहों में कश्मीर में लहराता हुआ तिरंगा, सार्वजनिक प्रेक्षागृहों और कार्यालयों में लगी भारतीय प्रधानमंत्री की तस्वीरें और आम भारतीय की बगैर परमिट वादी में चहलकदमी, उन्हें हिंद के इतिहास में वह मुकाम और वकार आता करता है, जो भारत में हैदराबाद विलय प्रसंग में सरदार पटेल को दिया जाता है।

गौरतलब है कि आज फिर उसी अटूट-अभिन्न अंग की विकृति के जिम्मेदार सड़े दुर्गंध युक्त फोड़े धारा 370 से रिसते अलगाव और आतंक के मवाद में बजबजाते कीटाणु ‘बुरहान’ जैसों को मौकापरस्त सियासत के नाले में पुनर्जीवन प्राप्त हो रहा है, लिहाजा मौजूदा संक्रमित काल खंड में ऐसे दिव्य पुरुष की गौरवमयी गाथा को जन-जन तक पहुंचाना परम आवश्यक है, ताकि भारत की युवा पीढ़ी डॉ. मुखर्जी के जीवन से प्रेरणा लेकर मां भारती को परम वैभव तक ले जाने की राह में आगे बढ़ती रहे।

कश्मीर हमारा अटूट-अभिन्न अंग है। कानों में उतरता यह नारा आजादी के बाद पैदा हुए हर हिंदुस्तानी ने राजनीतिक लोरी की तरह सुना है। इनमे से तमाम ने इतिहास के पन्नों पर घुटनों के बल सरकते हुए यह भी जाना कि पचास के दशक तक उसी अटूट-अभिन्न अंग में एक आम हिंदुस्तानी परमिट लेकर जाने की हैसियत रखता था। उसी अटूट-अभिन्न अंग का मालिक कोई दूसरा भी था, कश्मीर का प्रधान यानी अपना प्रधानमंत्री। उसके अटूट-अभिन्न अंग का रंग भी उसके बाकी शरीर जैसा तिरंगा न होकर कुछ और था, यानी कश्मीर का अलग झंडा और निशान। ये वो वायरस थे जो कश्यप ऋषि के कश्मीर को शेख अबदुल्ला के कश्मीर में तब्दील करने को आमादा थे।

इस व्यवस्था के विरोध में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बिना अनुमति के ही जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने का निश्चय किया। वे 8 मई 1953 को सायंकाल जम्मू के लिए रवाना हुए। उनके साथ वैद्य गुरुदत्त, श्री टेकचन्द, डा. बर्मन और अटल बिहारी वाजपेयी आदि भी थे। आज ही के दिन अर्थात 13 मई 1953 को वो समय था जब सत्ता के मद में चूर ही नही चकनाचूर हो चुके शेख अब्दुल्ला ने अपने आदेश पर रावी पुल पर पहुंचते ही डा. मुखर्जी, वैद्य गुरुदत्त, पं. प्रेमनाथ डोगरा और श्री टेकचन्द को बंदी बना लिया। इस गिरफ्तारी के साथ ही रच दी गयी थी पूरी साजिश की आगे क्या करना है और वही हुआ .. शेष लोग वापस लौट आये। डा. मुखर्जी ने 40 दिन तक जेल जीवन की यातनायें सहन कीं। वहीं वे अस्वस्थ हो गये या कर दिये गये। 22 जून को प्रात: 4 बजे उनको दिल का दौरा पड़ा। उन्हें उचित समय पर उचित चिकित्सा नहीं दी गयी। इसके परिणामस्वरूप आज यानि 23 जून 1953 को रहस्यमयी परिस्थितियों में प्रात: 3:40 पर डा. मुखर्जी कश्यप ऋषि की घाटी कश्मीर में सदा सदा के लिए अमर हो गए …

जब रात्रि गहरा जाती है तो वहां केवल रहता है डॉ. मुखर्जी का साया और रावी नदी की हाहाकार करती लहरें। रावी नदी का यह अभिशाप कहा जाय या उसका सौभाग्य की उसे शहीदों की शहादत की बारबार साक्षी बनना पडता है। ब्रिटिश शासकों ने जब भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु की अर्द्धरात्रि को हत्या कर उनके शवों को मिट्टी का तेल डालकर जलाने का प्रयास किया तो लोग उन अधजले शवों को उठाकर ले गए और रावी के किनारे ही उनका संस्कार किया। यही रावी एक दूसरे शहीद श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जाते हुए देखती रही और अब उसी रावी के किनारे पर माधोपुर में पंजाब सरकार ने डॉ. मुखर्जी का बुत खडा कर दिया है। रावी प्रश्न करती है अपने इस बलिदानी पुत्र, जो हुगली से चलकर उस तक पहुंचा था, के हत्यारों के बारे में। लेकिन रावी के इस प्रश्न का उत्तर कौन देगा? रावी पर से गुजरते हुए लगता है डॉ. मुखर्जी उदास मुद्रा में खडे हैं। शायद, उनका और रावी का प्रश्न एक ही है। परन्तु इसका उत्तर देने का साहस कोई नहीं कर पा रहा। वे भी नहीं जिन्होंने स्वयं ही कभी यह प्रश्न उठाया था।

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