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11 अप्रैल – बलिदान दिवस, बलिदानी खाज्या नायक. मंगल पाण्डेय जैसा ही एक महायोद्धा जिसने ब्रिटिश आर्मी में होते हुए की बगावत और प्राप्त की अमरता

यकीनन इन्हें आप जानते भी नहीं होंगे क्योकि इनका इतिहास बताया ही नहीं गया .

Rahul Pandey
  • Apr 11 2020 8:19AM
झोलाछाप इतिहासकारों की कलमे केवल एक ही परिवार के गुण गाने में व्यस्त रही जिसके चलते देश जानने से रह गया आज़ादी के उन अमर महानायकों को जिनके चलते राष्ट्र आज खुली हवा में सांस ले रहा है . इन्हें भुलाने वाले अक्सर आज़ादी की लड़ाई में कई लोगों का योगदान पूछा करते हैं जो हास्यास्पद है और पीडादायक भी .खाज्या नायक अंग्रेजों की भील पल्टन में एक सामान्य सिपाही थे। उन्हें सेंधवा-जामली चैकी से सिरपुर चैक तक के 24 मील लम्बे मार्ग की निगरानी का काम सौंपा गया था। खाज्या ने 1831 से 1851 तक इस काम को पूर्ण निष्ठा से किया। एक बार गश्त के दौरान उन्होंने एक व्यक्ति को यात्रियों को लूटते हुए देखा।

इससे वह इतने क्रोधित हो गये कि बिना सोचे-समझे उस पर टूट पड़े। इससे उस अपराधी की मृत्यु हो गयी। शासन ने कानून अपने हाथ में लेने पर उन्हें दस साल की सजा सुनायी। किन्तु कारावास में अनुशासित रहने के कारण उनकी सजा घटा कर पाँच साल कर दी गयी। जेल से छूट कर उनके मन में इस ब्रिटिश शासन के प्रति नफरत भर चुकी थी ..विदेशी सत्ता को वो पहले फ़ौज में रह कर बाद में जेल में रह कर अच्छे से समझ चुके थे...

इससे वह शासन से नाराज हो गये और उनसे बदला लेने का सही समय तलाशने लगे। इतिहासकार डा. एस.एन.यादव के अनुसार जब 1857 में भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह भड़क उठा, तो अंग्रेज अधिकारियों ने खाज्या और अनेक पूर्व सैनिक व सिपाहियों को फिर से काम पर रख लिया; पर खाज्या के मन में अंग्रेज शासन के प्रति घृणा बीज तो अंकुरित हो ही चुका था और माना जा रहा है कि वो अन्दर से रह कर अंग्रेजो को नुक्सान पहुचना चाह रहे थे. इन्होने अन्दर से ही अंग्रेजो की व्यूह रचना को अच्छे से समझ लिया था और पूरी तरह से सोची समझी रणनीति के चलते वो कार्य कर रहे थे ..आखिरकार सही समय आने पर उन्होंने ब्रिटिश पल्टन छोड़ दी और निकल पड़े राष्ट्र को दासता से मुक्त करवाने .

उनके मन में प्रतिशोध की भावना इतनी प्रबल थी कि वह बड़वानी (मध्य प्रदेश) क्षेत्र के क्रान्तिकारी नेता भीमा नायक से मिले, जो रिश्ते में उनके बहनोई लगते थे। यहीं से इन दोनों की जोड़ी बनी, जिसने भीलों की सेना बनाकर निमाड़ क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण खड़ा कर दिया। भील लोग शिक्षा और आर्थिक रूप से तो बहुत पीछे थे; पर उनमें वीरता और महाराणा प्रताप के सैनिक होने का स्वाभिमान कूट-कूटकर भरा था। जब एक बार ये अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े हो गये, तो फिर पीछे हटने का कोई प्रश्न ही नहीं था। इस सेना ने अंग्रेजों के खजाने लूटे, उनका वध किया और अंग्रेजों के पिट्ठुओं को भी नहीं बख्शा।

शासन ने इन्हें गिरफ्तार करने के अनेक प्रयास किये; पर जंगल और घाटियों के गहरे जानकार होने के कारण वीर भील योद्धा मारकाट कर सदा बचकर निकल जाते थे। अब शासन ने भेद नीति का सहारा लेकर इन दोनों भील नायकों को पकड़वाने वाले को एक हजार रु. का पुरस्कार घोषित कर दिया।तब के एक हजार रु. आज के दस लाख रु. के बराबर होंगे। फिर भी भीमा और खाज्या नायक बिना किसी भय के क्षेत्र में घूम-घूमकर लोगों को संगठित करते रहे। 11 अप्रैल, 1858 को बड़वानी और सिलावद के बीच स्थित आमल्यापानी गाँव में अंग्रेज सेना और इस भील सेना की मुठभेड़ हो गयी। अंग्रेज सेना के पास आधुनिक शस्त्र थे, जबकि भील अपने परम्परागत शस्त्रों से ही मुकाबला कर रहे थे। प्रातः आठ बजे से शाम तीन बजे तक यह युद्ध चला। इसमें खाज्या नायक के वीर पुत्र दौलतसिंह सहित अनेक योद्धा बलिदान हुए। आज भी सारा निमाड़ क्षेत्र उस वीरों के प्रति श्रद्धा से नत होता है, जिन्होंने अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए प्राणाहुति दी। आज आज़ादी के उस महानायक को उनके बलिदान दिवस पर सुदर्शन परिवार भावभीनी श्रदांजलि देते हुए उनके गौरवगान को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेता है . खाज्या नाईक अमर रहें .



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