इतिहास सिर्फ और सिर्फ वो नहीं जो लिखा गया है , इतिहास वो भी है जो छिपाया गया है.. मात्र कुछ गिने चुने लोगों को महिमामंडित करने के लिए जिस प्रकार से समाज को सत्य से दूर रखा गया उस अक्षम्य पाप का दंड निश्चित रूप से साजिशकर्ताओ को मिलना चाहिए. फिलहाल आज वो दिन है जब भारत के एक भूभाग को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बलिदानियों ने अपना त्याग कर के स्वतंत्र करवाया था लेकिन उनके इस कार्य को तब से ले कर अब तक जान बूझ कर छिपाया गया.
भारत का स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त, 1947 है. उस दिन अंग्रेज भारत से वापस गये थे. फ्रांस के कब्जे वाले पाण्डिचेरी, कारिकल तथा चन्द्रनगर भी उस दिन भारत को मिल गये थे; पर भारत के वे भूभाग, जो पुर्तगालियों के कब्जे में थे, तब भी गुलाम ही बने रहे.
कांग्रेस सरकार ने जब पुर्तगाल मुक्ति का कोई प्रयास नहीं किया, तो संघ ने उठाया बीड़ा
भारत के गुजरात और महाराष्ट्र प्रान्तों के मध्य में बसे गोवा, दादरा, नगर हवेली, दमन एवं दीव पुर्तगाल के अधीन थे. 15 अगस्त के बाद नेहरू के नेतृत्व में बनी कांग्रेस सरकार ने जब इनकी मुक्ति का कोई प्रयास नहीं किया, तो स्वयंसेवकों ने जनवरी 1954 में संघ के प्रचारक राजाभाऊ वाकणकर के नेतृत्व में यह बीड़ा उठाया. वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं से अनुमति लेकर वे इस काम के योग्य साथी तथा साधन एकत्र करने लगे. गुजराती, मराठी आदि 14 भाषाओं के ज्ञाता विश्वनाथ नरवणे ने पूरे समय सिल्वासा में रहकर व्यूह रचना की. हथियारों के लिए काफी धन की आवश्यकता थी. यह कार्य प्रसिद्ध मराठी गायक व संगीतकार सुधीर फड़के को सौंपा गया.
1948 में गांधी-हत्या के झूठे आरोप में संघ पर लगाया गया था प्रतिबन्ध
1948 में गांधी-हत्या के झूठे आरोप में संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया था. यद्यपि प्रतिबन्ध हट चुका था, फिर भी लोग संघ को अच्छी नजर से नहीं देखते थे. ऐसे में सुधीर फड़के ने लता मंगेशकर के साथ मिलकर संगीत कार्यक्रम के आयोजन से धन एकत्र किया. सब व्यवस्था हो जाने पर राजाभाऊ ने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी को सारी योजना बताकर उनका आशीर्वाद भी ले लिया. इस दल को 'मुक्तिवाहिनी' नाम दिया गया. 31 जुलाई की तूफानी रात में सब पुणे रेलवे स्टेशन पर एकत्र हुए.
1954 को प्रातः शासकीय भवन पर गर्व से फहरा उठा तिरंगा
वहां से कई टुकड़ियों में बंटकर एक अगस्त को मूसलाधार वर्षा में मुम्बई होते हुए सब सिल्वासा पहुंच गये. योजनानुसार एक निश्चित समय पर सबने हमला बोल दिया और पुलिस थाना, न्यायालय, जेल आदि को मुक्त करा लिया. पुर्तगाली सैनिकों ने जब यह माहौल देखा, तो डर कर हथियार डाल दिये. अब सब पुर्तगाली शासन के मुख्य भवन पर पहुंच गये. थोड़े से संघर्ष में ही प्रमुख प्रशासक फिंदाल्गो और उसकी पत्नी को बन्दी बना लिया; पर उनकी प्रार्थना पर उन्हें सुरक्षित बाहर जाने दिया गया. दो अगस्त, 1954 को प्रातः जब सूर्योदय हुआ, तो शासकीय भवन पर तिरंगा गर्व से फहरा उठा.
मात्र 116 स्वयंसेवकों ने एक रात में ही इस क्षेत्र को करा लिया था स्वतन्त्र
आज सुनने में बड़ा आश्चर्य लगता है; पर यह सत्य है कि केवल 116 स्वयंसेवकों ने एक रात में ही इस क्षेत्र को स्वतन्त्र करा लिया था. इनमें सर्वश्री बाबूराव भिड़े, विनायकराव आप्टे, बाबासाहब पुरन्दरे, डा. श्रीधर गुप्ते, बिन्दु माधव जोशी, मेजर प्रभाकर कुलकर्णी, श्रीकृष्ण भिड़े, नाना काजरेकर, त्रयम्बक भट्ट, विष्णु भोंसले, श्रीमती ललिता फड़के व श्रीमती हेमवती नाटेकर आदि की भी प्रमुख भूमिका थी.
आज उन सभी वीर बलिदानियों को सुदर्शन परिवार ओर से बारम्बार नमन
एक अन्य बात भी इस बारे में उल्लेखनीय है कि न जाने किन किन को स्वतन्त्रता सेनानी मानकर कांग्रेस सरकार ने अनेक सुविधाएं तथा पेंशन दी; पर चूंकि यह क्षेत्र संघ के स्वयंसेवकों ने स्वतन्त्र कराया था, इसलिए नेहरू ने इन्हें स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं माना. 1998 में केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के शासन में इन्हें यह मान्यता मिली. आज उन सभी वीर बलिदानियों को सुदर्शन परिवार बारम्बार नमन करते हुए उनकी यशगाथा को सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेता है.