इन्हें आप कहीं किसी किताब आदि में आप नहीं पायेंगे.. ये जीवंत भामाशाह हैं 1857 की क्रांति के जिन्होंने इस राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व लुटा दिया. पहले अपना धन और बाद में अपना जीवन लेकिन उनके चेहरे पर सदा एक मुस्कान रही. लेकिन आश्चर्य देखिए तथाकथित चाटुकार इतिहासकारों और नकली कलमकारों ने उन्हें कभी भी सच्चे मन से याद करना तो दूर उनका नाम थी ठीक से लेना उचित नहीं समझा और उन्हें गुमनाम कर दिया.
हम बात कर रहे हैं उस अमर बलिदानी सेठ अमरचन्द की जिसने यकीनन भामाशाह की तरह ही देश के लिए त्याग किया लेकिन उनके बलिदान की कहीं से कोई भी चर्चा नहीं की गयी. स्वाधीनता समर के अमर सेनानी सेठ अमरचन्द मूलतः बीकानेर (राजस्थान) के निवासी थे. वे अपने पिता श्री अबीर चन्द बाँठिया के साथ व्यापार के लिए ग्वालियर आकर बस गये थे. जैन मत के अनुयायी अमरचन्द जी ने अपने व्यापार में परिश्रम, ईमानदारी एवं सज्जनता के कारण इतनी प्रतिष्ठा पायी कि ग्वालियर राजघराने ने उन्हें नगर सेठ की उपाधि देकर राजघराने के सदस्यों की भाँति पैर में सोने के कड़े पहनने का अधिकार दिया.
आगे चलकर उन्हें ग्वालियर के राजकोष का प्रभारी नियुक्त किया. अमरचन्द जी बड़े धर्मप्रेमी व्यक्ति थे. 1855 में उन्होंने चातुर्मास के दौरान ग्वालियर पधारे सन्त बुद्धि विजय जी के प्रवचन सुने. इससे पूर्व वे 1854 में अजमेर में भी उनके प्रवचन सुन चुके थे. उनसे प्रभावित होकर वे विदेशी और विधर्मी राज्य के विरुद्ध हो गये. 1857 में जब अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय सेना और क्रान्तिकारी ग्वालियर में सक्रिय हुए, तो सेठ जी ने राजकोष के समस्त धन के साथ अपनी पैतृक सम्पत्ति भी उन्हें सौंप दी. उनका मत था कि राजकोष जनता से ही एकत्र किया गया है. इसे जनहित में स्वाधीनता सेनानियों को देना अपराध नहीं है और निजी सम्पत्ति वे चाहे जिसे दें. इस पर अंग्रेजों ने राजद्रोही घोषित कर उनके विरुद्ध वारण्ट जारी कर दिया.
अमरचन्द जी भूमिगत होकर क्रान्तिकारियों का सहयोग करते रहे; पर एक दिन वे शासन के हत्थे चढ़ गये और मुकदमा चलाकर उन्हें जेल में डाल दिया गया. सुख-सुविधाओं में पले सेठ जी को वहाँ भीषण यातनाएँ दी गयीं. मुर्गा बनाना, पेड़ से उल्टा लटका कर चाबुकों से मारना, हाथ पैर बाँधकर चारों ओर से खींचना, लोहे के जूतों से मारना, अण्डकोषों पर वजन बाँधकर दौड़ाना, मूत्र पिलाना आदि अमानवीय अत्याचार उन पर किये गये. अंग्रेज चाहते थे कि वे क्षमा मांग लें, पर सेठ जी तैयार नहीं हुए. इस पर अंग्रेजों ने उनके आठ वर्षीय निरपराध पुत्र को भी पकड़ लिया. अब अंग्रेजों ने धमकी दी कि यदि तुमने क्षमा नहीं मांगी, तो तुम्हारे पुत्र की हत्या कर दी जाएगी.
यह बहुत कठिन घड़ी थी लेकिन सेठ जी विचलित नहीं हुए. इस पर उनके पुत्र को तोप के मुंह पर बांधकर गोला दाग दिया गया. बच्चे का शरीर चिथड़े-चिथड़े हो गया. इसके बाद सेठ जी के लिए 22 जून, 1858 को फांसी की तिथि निश्चित कर दी गयी. इतना ही नहीं, नगर और ग्रामीण क्षेत्र की जनता में आतंक फैलाने के लिए अंग्रेजों ने यह भी तय किया गया कि सेठ जी को 'सर्राफा बाजार' में ही फाँसी दी जाएगी. अन्ततः 22 जून भी आ गया. सेठ जी तो अपने शरीर का मोह छोड़ चुके थे. अन्तिम इच्छा पूछने पर उन्होंने नवकार मन्त्र जपने की इच्छा व्यक्त की. उन्हें इसकी अनुमति दी गयी. धर्मप्रेमी सेठ जी को फांसी देते समय दो बार ईश्वरीय व्यवधान आ गया. एक बार तो रस्सी और दूसरी बार पेड़ की वह डाल ही टूट गयी, जिस पर उन्हें फांसी दी जा रही थी.
तीसरी बार उन्हें एक मजबूत नीम के पेड़ पर लटकाकर फांसी दी गयी और शव को तीन दिन वहीं लटके रहने दिया गया. सर्राफा बाजार स्थित जिस नीम के पेड़ पर सेठ अमरचन्द बाँठिया को फांसी दी गयी थी, उसके निकट ही सेठ जी की प्रतिमा स्थापित है. हर साल 22 जून को वहाँ बड़ी संख्या में लोग आकर देश की स्वतन्त्रता के लिए प्राण देने वाले उस अमर हुतात्मा को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. आज आज़ादी के उस महानायक को उनके बलिदान दिवस पर सुदर्शन परिवार उन्हें बारम्बार नमन और वन्दन करते हुए उनकी गौरवगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेता है.