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10 जनवरी:- पुण्यतिथि जस्टिस राधा विनोद पाल जी , जिन्हें जापान पूजता है भगवान की तरह.. जानिए कौन थी ये महान विभूति जिसका नाम तक गुमनाम कर दिया वामपंथी इतिहासकारों ने

डा. पाल का जन्म 27 जनवरी, 1886 को हुआ था। कोलकाता के प्रेसिडेन्सी कॉलिज तथा कोलकाता विश्वविद्यालय से कानून की शिक्षा पूर्ण कर वे इसी विश्वविद्यालय में 1923 से 1936 तक अध्यापक रहे।

Rahul Pandey
  • Jan 10 2021 10:45AM
इंसान अपने जीवन काल मे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो पर संसार से जाने के बाद वो जाना जाता है मात्र अपने सत्कर्मो से.. भले ही आज होड़ मची है ऐसे कर्मो की जो न शास्त्र सम्मत हैं, न न्याय संगत फिर भी इसी पंक्ति में कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने अपनी धाक ऐसी जमाई है जो देश ही नही बल्कि विदेशों में भी न सिर्फ उनके बल्कि पूरे राष्ट्र के सम्मान का कारण बन चुकी है..

उन तमाम ज्ञात अज्ञात विभूतियों में एक हैं दिवंगत जस्टिस राधा विनोद पाल जी जो नींव हैं भारत और जापान के मधुर संबंधो की और एक आदर्श हैं उन तमाम लोगों के लिए जिनकी खातिर राष्ट्र व राष्ट्र के हित सर्वोपरि होते हैं. यदि इनके न्याय को संसार का अब तक का सबसे कठिन हालात में किया गया फैसला माना जाता है तो इनका देहांत न्यायपालिका का सम्मान करने की दुहाई देने वालों के उस चेहरे को उजागर करता है जिसको ढंकने की चाटुकार इतिहासकारों व नकली कलमकारों ने बहुत मेहनत की..

एक सच्चा न्याय करने के बाद विदेश में पूजे जा रहे भारत के इस रत्न को भारत मे ही अन्न के एक एक दाने को केवल इसलिए मोहताज बना दिया गया क्योंकि उस समय के शासक को भारत पर 200 साल अत्याचार कर के गए अंग्रेजो को खुश करना था.. 

जबकि वही कुछ आज आज़ादी के ठेकेदार बन कर अपनी मेहनत के बदले देश की सत्ता मांगते दिखाई देते हैं..अनेक भारतीय ऐसे हैं जिन्हें विदेशों में तो सम्मान मिलता है; पर अपने देशवासी उन्हें प्रायः स्मरण नहीं करते। डा. राधाविनोद पाल वैश्विक ख्याति के ऐसे ही विधिवेत्ता तथा न्यायाधीश थे, जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान के विरुद्ध चलाये गये अन्तरराष्ट्रीय मुकदमे में मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध निर्णय देने का साहस किया था.

जबकि उस समय विजयी होने के कारण मित्र राष्ट्रों का दुःसाहस बहुत बढ़ा हुआ था। मित्र राष्ट्र अर्थात अमरीका, ब्रिटेन, फ्रान्स आदि देश जापान को दण्ड देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने युद्ध की समाप्ति के बाद ‘क्लास ए वार क्राइम्स’ नामक एक नया कानून बनाया, जिसके अन्तर्गत आक्रमण करने वाले को मानवता तथा शान्ति के विरुद्ध अपराधी माना गया था।

इसके आधार पर जापान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री हिदेकी तोजो तथा दो दर्जन अन्य नेता व सैनिक अधिकारियों को युद्ध अपराधी बनाकर कटघरे में खड़ा कर दिया। 11 विजेता देशों द्वारा 1946 में निर्मित इस अन्तरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण (इण्टरनेशनल मिलट्री ट्रिब्यूनल फार दि ईस्ट) में डा. राधाविनोद पाल को ब्रिटिश सरकार ने भारत का प्रतिनिधि बनाया था। इस मुकदमे में दस न्यायाधीशों ने तोजो को मृत्युदण्ड दिया.

पर डा. राधाविनोद पाल ने न केवल इसका विरोध किया, बल्कि इस न्यायाधिकरण को ही अवैध बताया। इसलिए जापान में आज भी उन्हें एक महान् व्यक्ति की तरह सम्मान दिया जाता है।द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के लगभग 20 लाख सैनिक तथा नागरिक मारे गये थे। राजधानी टोक्यो में उनका स्मारक बना है। 

इसे जापान के लोग मन्दिर की तरह पूजते हैं। यासुकूनी नामक इस समाधि स्थल पर डा. राधाविनोद का स्मारक भी बना है। जापान के सर्वोच्च धर्मपुरोहित नानबू तोशियाकी ने डा. राधाविनोद की प्रशस्ति में लिखा है कि – हम यहाँ डा. पाल के जोश और साहस का सम्मान करते हैं, जिन्होंने वैधानिक व्यवस्था और ऐतिहासिक औचित्य की रक्षा की। 

हम इस स्मारक में उनके महान कृत्यों को अंकित करते हैं, जिससे उनके सत्कार्यों को सदा के लिए जापान की जनता के लिए धरोहर बना सकें। आज जब मित्र राष्ट्रों की बदला लेने की तीव्र लालसा और ऐतिहासिक पूर्वाग्रह ठण्डे हो रहे हैं, सभ्य संसार में डा0 राधाविनोद पाल के निर्णय को सामान्य रूप से अन्तरराष्ट्रीय कानून का आधार मान लिया गया है।

डा. पाल का जन्म 27 जनवरी, 1886 को हुआ था। कोलकाता के प्रेसिडेन्सी कॉलिज तथा कोलकाता विश्वविद्यालय से कानून की शिक्षा पूर्ण कर वे इसी विश्वविद्यालय में 1923 से 1936 तक अध्यापक रहे। 1941 में उन्हें कोलकाता उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त किया गया। वह तत्कालीन अंग्रेज शासन के सलाहकार भी रहे। 

यद्यपि उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय कानून का औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था, फिर भी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब जापान के विरुद्ध ‘टोक्यो ट्रायल्ज’ नामक मुकदमा शुरू किया गया, तो उन्हें इसमें न्यायाधीश बनाया गया।  डा. पाल ने अपने निर्णय में लिखा कि किसी घटना के घटित होने के बाद उसके बारे में कानून बनाना नितान्त अनुचित है। उनके इस निर्णय की सभी ने सराहना की। 

अपने जीवन के अन्तिम दिनों में डा. पाल ने निर्धनता के कारण अत्यन्त कष्ट भोगते हुए 10 जनवरी, 1967 को यह संसार छोड़ दिया। आज संसार मे भारत के न्याय, नीति की प्रतीक उस महान विभूति को उनकी पुण्यतिथि पर बारंबार नमन करते हुए उनकी यशगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प सुदर्शन परिवार परिवार दोहराता है!

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