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आज के ही दिन कश्मीर में शुरू हुआ था हिंदुओं का नरसंहार... मस्जिदों से हुई थी हिंदुओं के कत्लेआम की घोषणा

सैकड़ों हिंदू घरों में उस दिन बेचैनी थी। सड़कों पर इस्‍लाम और पाकिस्‍तान की शान में तकरीरें हो रही थीं। हिंदुओं के खिलाफ जहर उगला जा रहा था।

Prem Kashyap Mishra
  • Jan 19 2022 2:02PM

19 जनवरी 1990 की सर्द सुबह थी। कश्‍मीर की मस्जिदों से उस रोज अज़ान के साथ-साथ कुछ और नारे भी गूंजे। 'यहां क्‍या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा', 'कश्‍मीर में अगर रहना है, अल्‍लाहू अकबर कहना है' और 'असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान' मतलब हमें पाकिस्‍तान चाहिए और हिंदू औरतें भी मगर अपने मर्दों के बिना। यह संदेश था कश्‍मीर में रहने वाले हिन्दुओं के लिए। ऐसी धमकियां उन्‍हें पिछले कुछ महीनों से मिल रही थीं।  सैकड़ों हिंदू घरों में उस दिन बेचैनी थी। सड़कों पर इस्‍लाम और पाकिस्‍तान की शान में तकरीरें हो रही थीं। हिंदुओं के खिलाफ जहर उगला जा रहा था। वो रात बड़ी भारी गुजरी, सामान बांधते-बांधते। पुश्‍तैनी घरों को छोड़कर कश्‍मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन का फैसला किया।

7 नवंबर 1986 से लेकर 19 जनवरी 1990 तक जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार थी. लेकिन, इस सामूहिक नरसंहार के बाद क़रीब 7 वर्षों तक जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन रहा और ये दौर था 19 जनवरी 1990 से लेकर 9 अक्टूबर 1996 तक. इस दौरान केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार थी, जिसके प्रधानमंत्री वीपी सिंह थे. इस सरकार को बीजेपी और पीडीपी का भी समर्थन हासिल था और पीडीपी के अध्यक्ष मुफ्ती मोहम्मद सईद देश के गृहमंत्री हुआ करते थे.  1996 में एक बार फिर जम्मू कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार बनी और फारूक अब्दुल्ला ने 6 साल 9 दिन यानी 18 अक्टूबर 2002 तक मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली. फारूक अब्दुल्ला के बाद अगला चुनाव पीडीपी ने जीता और मुफ्ती मोहम्मद सईद ने 3 वर्षों तक मुख्यमंत्री के तौर पर राज्य की सेवा की. 

हालांकि, यह सरकार पीडीपी और कांग्रेस पार्टी के गठबंधन की सरकार थी, जिसमें ये तय किया गया था कि शुरुआती 3 साल पीडीपी का मुख्यमंत्री होगा और बाकी के तीन साल कांग्रेस का मुख्यमंत्री रहेगा. लेकिन सरकार का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही पीडीपी ने समर्थन वापस ले लिया और एक बार फिर राज्य में चुनाव हुआ.  नवंबर 2005 में कांग्रेस पार्टी को जीत हासिल हुई और गुलाम नबी आज़ाद ने जुलाई 2008 तक अपनी ज़िम्मेदारी निभाई. इसके बाद क़रीब 178 दिनों तक जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन रहा. फिर 5 जनवरी 2009 से 8 जनवरी 2015 तक एक बार फिर घाटी में नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार चली.

इस दौरान मुख्यमंत्री थे. उमर अब्दुल्ला ध्यान देने वाली बात ये भी है कि इस सरकार को कांग्रेस का समर्थन हासिल था.  इसके बाद मार्च 2015 में पीडीपी की सरकार बनी. इस सरकार के पहले मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद थे और उनके निधन के बाद मुख्यमंत्री की ज़िम्मेदारी उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती ने निभाई. यहां पर ध्यान देने वाली बात ये है कि इस सरकार को बीजेपी का समर्थन भी हासिल था, लेकिन जून 2018 में बीजेपी ने PDP से समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई.

19 जनवरी 1990 की रात हजारों कश्मीरी पंडितों का कत्ल कर दिया गया था. उन्हें घर-बार छोड़ने पर मजबूर किया गया था. ये एक नरसंहार था जिसे अंग्रेजी में होलोकास्ट (नरसंहार) कहते हैं. इस नरसंहार को अंजाम देने वालों में से कुछ लोग आज भी खुली हवा में सांस ले रहे हैं जबकि कुछ को उनके गुनाहों की सजा मिलनी शुरू हो गई है. कश्मीरी पंडितों के नरसंहार से जुड़े दो किरदारों को हमारे देश की राजनीति ने 90 के दशक में फलने-फूलने का मौका दिया और बाद में वही हत्यारे अलगाववादी नेता बनकर कश्मीर के ठेकेदार बन गए.

कश्मीरी पंडितों के दो सबसे बड़े हत्यारों का नाम है- यासीन मलिक और बिट्टा कराटे, जिसे लोग फारूख अहमद डार के नाम से भी जानते हैं.  ये दोनों अलगाववादी नेता हैं और प्रतिबंधित संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (Jammu Kashmir Liberation Front) से जुड़े रहे हैं. कश्मीरी पंडितों के नरसंहार में इन दोनों का सबसे बड़ा हाथ था. और ये सिर्फ कहने की बात नहीं है बल्कि इन दोनों आतंकवादियों की पूरी कुंडली में इनके गुनाहों से लेकर इन्हें राजनीतिक संरक्षण देने वालों का पूरा कच्चा-चिट्ठा मौजूद है.

 

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