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अमर हुतात्मा बिरसा मुंडा को मोदी सरकार का नमन... जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनेगी उनकी जन्मजयंती

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को हुआ था. 19वीं शताब्दी के अंत में ब्रिटिश शासन के दौरान उन्होंने 19वीं शताबदी में आदिवासी बेल्ट में बंगाल प्रेसीडेंसी (अब झारखंड) में आदिवासी धार्मिक सहस्राब्दी आंदोलन का नेतृत्व किया.

Abhay Pratap
  • Nov 10 2021 8:11PM

आज़ादी के नकली ठेकेदार कभी नहीं चाहते थे कि दुनिया इन्हें जाने. क्यों कहा जाने लगा इन्हें भगवान ? अगर इसका राज़ वो बता देते तो उनके नकली ठेकेदार का क्या होता? तोपों व बन्दूकों के आगे अपनी छाती को अड़ा कर उन्हें तीरों से ध्वस्त कर देने वाले को क्यों न भगवान माना जाय?  सवाल ये भी है कि अगर आज़ादी चरखे से आई तो अंग्रेजों की छाती में धंसा बिरसा मुंडा का तीर किस बात का प्रतीक है. नकली कलमकारों व झोलाछाप इतिहासकारों के द्वारा किये गए अक्षम्य पाप का प्रतीक है भगवान बिरसा मुंडा का जीवन जिन्हें स्वर्णिम अक्षरों से नही लिखा गया.

लेकिन अब मोदी सरकार अमर हुतात्मा बिरसा मुंडा को वास्तविक श्रद्धांजलि देने जा रही है. देश में 15 नवंबर को बिरसा मुंडा की जयंती 'जनजातीय गौरव दिवस' के रूप में मनाई जाएगी. केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बुधवार को इसको मंजूरी दे दी. केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने इसकी जानकारी देते हुए कहा कि 'आदिवासी लोगों की संस्कृति और उपलब्धियों के गौरवशाली इतिहास को मनाने के लिए 15 से 22 नवंबर तक सप्ताह भर चलने वाले समारोहों की योजना बनाई गई है.

आपको बता दें कि बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को हुआ था. 19वीं शताब्दी के अंत में ब्रिटिश शासन के दौरान उन्होंने 19वीं शताबदी में आदिवासी बेल्ट में बंगाल प्रेसीडेंसी (अब झारखंड) में आदिवासी धार्मिक सहस्राब्दी आंदोलन का नेतृत्व किया. 1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान (कर) माफी के लिये आन्दोलन किया.

1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी. लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और जिससे उन्होंने अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया .उन्हें उस इलाके के लोग "धरती बाबा" के नाम से पुकारा और पूजा करते थे. उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के लोगों में संगठित होने की चेतना जागी और अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध संघर्ष का बिगुल फूंक दिया.

1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था. अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला. 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं.

जनवरी 1900 डोम्बरी पहाड़ पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत सी औरतें व बच्चे मारे गये थे. उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे. बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियां भी हुईं. अन्त में स्वयं बिरसा मुंडा को भी भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से अंग्रेजों द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया.

अमर हुतात्मा बिरसा मुंडा ने अपनी अन्तिम सांसें 9 जून 1900 ई को रांची कारागार में लीं, जहां अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें जहर दे दिया था. आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है. सिर्फ आदिवासी इलाके ही नहीं बल्कि समस्त देशवासी बिरसा मुंडा को धरती का भगवान कहते हैं.

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