27 फरवरी: बलिदान दिवस चंद्रशेखर आज़ाद महान.. भुने चने खा कर तब लड़ा था स्वतंत्रता का समर जब कुछ के प्रेमपत्र ले जाया करते थे हवाई जहाज़
देश की मुक्ति के लिए अपनी उग्र जवानी को स्वाहा कर गए परम बलिदनी आज़ाद को आज सुदर्शन न्यूज की तरफ से शत शत नमन , वंदन और अभिनंदन ….
काल की तरह वो सपनो में आते थे अंग्रेजो के . वो बलिदानी जिनके लहू के बदले
आयी है स्वतंत्रता उनको गाली की तरह चुभता हुआ वाक्य बोला गया जिसमे बताया
गया की आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल आयी है , वो बलिदानी जिन्होंने केवल केवल
२० या २५ की संख्या में होते हुए भी दुनिया पर जबरन हुकूमत कर रहे
अंग्रेजों को रात के सपने में दहशत दे थी ..
वो बलिदानी जिन्होंने शिवा जी और महाराणा प्रताप के अस्त्र शास्त्र की
परम्परा को जीवित रखा और भारत का गौरव बचाये रखा , उन सब में सर्वोपरि और
महानतम चंद्रशेखर आज़ाद जी का बलिदान दिवस है… भारतीय क्रन्तिकारी, काकोरी
ट्रेन क्रान्ति (1926), वाइसराय की ट्रैन को उड़ाने का प्रयास (1926), लाला
लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए सॉन्डर्स पर गोलीबारी की (1928),
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के साथ मिलकर हिंदुस्तान समाजवादी
प्रजातंत्रसभा का गठन किया।
चंद्रशेखर आज़ाद एक महान भारतीय क्रन्तिकारी थे। उनकी उग्र देशभक्ति और साहस
ने उनकी पीढ़ी के लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में भागलेने के लिए प्रेरित
किया। चंद्रशेखर आजाद भगत सिंह के सलाहकार, और एक महान स्वतंत्रता सेनानी
थे और भगत सिंह के साथ उन्हें भारत के सबसे महान क्रांतिकारियों में से एक
माना जाता है।
चन्द्रशेखर आजाद का जन्म भाबरा गाँव (अब चन्द्रशेखर आजादनगर) (वर्तमान
अलीराजपुर जिला) में २३ जुलाई सन् १९०६ को हुआ था। उनके पूर्वज बदरका
(वर्तमान उन्नाव जिला) से थे। आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी संवत्
१९५६ में अकाल के समय अपने पैतृक निवास बदरका को छोड़कर पहले कुछ दिनों
मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे फिर जाकर भाबरा गाँव में
बस गये।
यहीं बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था। आजाद
का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गाँव में बीता
अतएव बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाये। चंद्रशेखर
कट्टर सनातनधर्मी परिवार में जन्म लिए थे।
इनके पिता नेक, धर्मनिष्ट और राष्ट्रभक्ति के पक्के थे और उनमें कोई अहंकार
नहीं था। वे बहुत स्वाभिमानी और दयालु प्रवर्ति के थे। घोर गरीबी में
उन्होंने दिन बिताए थे और इसी कारण चंद्रशेखर की अच्छी शिक्षा-दीक्षा नहीं
हो पाई, लेकिन पढ़ना-लिखना उन्होंने गाँव के ही एक बुजुर्ग मनोहरलाल
त्रिवेदी से सीख लिया था, जो उन्हें घर पर निःशुल्क पढ़ाते थे।
बचपन से ही चंद्रशेखर में भारतमाता को स्वतंत्र कराने की भावना कूट-कूटकर
भरी हुई थी। इसी कारन उन्होनें स्वयं अपना नाम आज़ाद रख लिया था। उनके जीवन
की एक घटना ने उन्हें सदा के लिए क्रांति के पथ पर अग्रसर कर दिया। 13
अप्रैल 1919 को जलियाँवाला बाग़ अमृतसर में जनरल डायर ने जो नरसंहार किया,
उसके विरोध में तथा रौलट एक्ट के विरुद्ध जो जन-आंदोलन प्रारम्भ हुआ था, वह
दिन प्रतिदिन ज़ोर पकड़ता जा रहा था।
महान आजाद प्रखर देशभक्त थे। काकोरी काण्ड में फरार होने के बाद से ही
उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग
उन्होंने कई बार किया। एक बार वे दल के लिये धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक
मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद मठ की
सम्पत्ति उनके हाथ लग जाये।
परन्तु वहाँ जाकर जब उन्हें पता चला कि साधु उनके पहुँचने के पश्चात्
मरणासन्न नहीं रहा अपितु और अधिक हट्टा-कट्टा होने लगा तो वे वापस आ गये।
प्राय: सभी क्रान्तिकारी उन दिनों रूस की क्रान्तिकारी कहानियों से अत्यधिक
प्रभावित थे आजाद भी थे लेकिन वे खुद पढ़ने के बजाय दूसरों से सुनने में
ज्यादा आनन्दित होते थे।
एक बार दल के गठन के लिये बम्बई गये तो वहाँ उन्होंने कई फिल्में भी देखीं।
उस समय मूक फिल्मों का ही प्रचलन था, पर वे फिल्मो के प्रति विशेष आकर्षित
नहीं हुए क्योंकि उनके मन में भारत को स्वतंत्र करवाने की धुन पल चुकी थी
और उन्होंने खुद को एक ही लक्ष्य पर केंद्रित कर दिया था ।
चन्द्रशेखर की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही प्रारम्भ हुई। पढ़ाई में उनका
कोई विशेष लगाव नहीं था। इनकी पढ़ाई का जिम्मा इनके पिता के करीबी मित्र
पं. मनोहर लाल त्रिवेदी जी ने लिया। वह इन्हें और इनके भाई को अध्यापन का
कार्य कराते थे और गलती करने पर बेंत का भी प्रयोग करते थे।
चन्द्रशेखर के माता पिता उन्हें संस्कृत का विद्वान बनाना चाहते थे किन्तु
कक्षा चार तक आते आते इनका मन घर से भागकर जाने के लिये पक्का हो गया था।
ये बस घर से भागने के अवसर तलाशते रहते थे। इसी बीच मनोहरलाल जी ने इनकी
तहसील में साधारण सी नौकरी लगवा दी ताकि इनका मन इधर उधर की बातों में से
हट जाये और इससे घर की कुछ आर्थिक मदद भी हो जाये। किन्तु शेखर का मन नौकरी
में नहीं लगता था।
वे बस इस नौकरी को छोड़ने की तरकीबे सोचते रहते थे। उनके अंदर देश प्रेम की
चिंगारी सुलग रहीं थी। यहीं चिंगारी धीरे-धीरे आग का रुप ले रहीं थी और वे
बस घर से भागने की फिराक में रहते थे। एक दिन उचित अवसर मिलने पर आजाद घर
से भाग गये।
1922 में जब गांधी ने चंद्रशेखर को असहकार आन्दोलन से निकाल दिया था तब
आज़ाद और क्रोधित हो गए थे। तब उनकी मुलाकात युवा क्रांतिकारी प्रन्वेश
चटर्जी से हुई जिन्होंने उनकी मुलाकात राम प्रसाद बिस्मिल से करवाई,
जिन्होंने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) की स्थापना की थी, यह एक
क्रांतिकारी संस्था थी।
जब आजाद ने एक कंदील पर अपना हाथ रखा और तबतक नही हटाया जबतक की उनकी त्वचा
जल ना जाये तब आजाद को देखकर बिस्मिल काफी प्रभावित हुए। इसके बाद
चंद्रशेखर आजाद हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य बन गए थे और
लगातार अपने एसोसिएशन के लिये चंदा इकठ्ठा करने में जुट गए।
वे एक नये भारत का निर्माण करना चाहते थे जो सामाजिक तत्वों पर आधारित हो
और उसमे भारत विरोधियों का कोई स्थान ना हो . आज़ाद ने कुछ समय तक झांसी का
अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बनाया था | झांसी से 15 किलोमीटर की
दूरी पर ओरछा के जंगलो में निशानेबाजी का अभ्यास करते रहते थे |
वो अपने दल के दुसरे सदस्यों को भी निशानेबाजी के लिए प्रशिक्षित करते थे |
उन्होंने सतर नदी के किनारे स्थित हनुमान मन्दिर के पास एक झोंपड़ी भी बनाई
थी | आजाद वहा पर पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के सानिध्य में काफी लम्बे समय
तक रहे थे और पास के गाँव धिमारपुरा के बच्चो को पढाया करते थे |
इसी वजह से उन्होंने स्थानीय लोगो से अच्छे संबंध बना लिए थे | मध्य प्रदेश
सरकार ने आजाद के नाम पर बाद में इस गाँव का नाम आजादपूरा कर दिया था |
हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना 1924 में बिस्मिल ,चटर्जी ,चीन
चन्द्र सान्याल और सचिन्द्र नाथ बक्शी द्वारा की गयी थी |
1925 में काकोरी कांड के बाद अंग्रेजो ने क्रांतिकारी गतिविधियो पर अंकुश
लगा दिया था |इस काण्ड में रामप्रसाद बिस्मिल , अशफाकउल्ला खान , ठाकुर
रोशन सिंह और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को फांसी की सजा हो गयी थी | इस काण्ड से
Chandra Shekhar Azad चंद्रशेखर आजाद ,केशव चक्रवती और मुरारी शर्मा बच कर
निकल गये |
चंद्रशेखर आजाद ने बाद में कुछ क्रांतिकारीयो की मदद से हिन्दुस्तान
रिपब्लिकन एसोसिएशन को फिर पुनर्गठित किया |चन्द्रशेखर आजाद , भगवती चरण
वोहरा का निकट सहयोगी था जिन्होंने 1928 में भगत सिंह ,राजगुरु और सुखदेव
की मदद से हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन को हिन्दुस्तान सोशलिस्ट
रिपब्लिकन एसोसिएशन में बदल दिया |
अब उनका सिद्धांत समाजवाद के सिधांत पर स्वतंत्रता पाना मुख्य उद्देश्य था |
असहयोग आंदोलन के स्थगित होने के बाद चंद्रशेखर आज़ाद और अधिक आक्रामक और
क्रांतिकारी आदर्शों की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने किसी भी कीमत पर देश को
आज़ादी दिलाने के लिए खुद को प्रतिबद्ध किया।
चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर ऐसे ब्रिटिश अधिकारियों को
निशाना बनाया जो सामान्य लोगों और स्वतंत्रता सेनानियों के विरुद्ध दमनकारी
नीतियों के लिए जाने जाते थे। चंद्रशेखर आज़ाद काकोरी ट्रेन डकैती (1926),
वाइसराय की ट्रैन को उड़ाने के प्रयास (1926), और लाहौर में लाला लाजपतराय
की मौत का बदला लेने के लिए सॉन्डर्स को गोली मारने (1928) जैसी घटनाओं में
शामिल थे।
दिसंबर की कड़ाके वाली ठंड की रात थी और ऐसे में आज़ाद महान को ओढ़ने – बिछाने
के लिए कोई बिस्तर नहीं दिया गया क्योंकि पुलिस वालोँ का ऐसा सोचना था कि
यह लड़का ठंड से घबरा जाएगा और माफी माँग लेगा, किंतु ऐसा नहीं हुआ ।
यह देखने के लिए लड़का क्या कर रहा है और शायद वह ठंड से ठिठुर रहा होगा,
आधी रात को इंसपेक्टर ने चंद्रशेखर की कोठरी का ताला खोला तो वह यह देखकर
आश्चर्यचकित हो गया कि चंद्रशेखर दंड – बैठक लगा रहे थे और उस कड़कड़ाती ठंड
में भी पसीने से नहा रहे थे ।
दूसरे दिन आज़ाद महान को न्यायालय में मजिस्ट्रेट के सामने ले जाया गया । उन
दिनों बनारस में एक बहुत कठोर मजिस्ट्रेट नियुक्त था । उसी अंग्रेज
मजिस्ट्रेट के सामने १५ वर्षीय चंद्रशेखर को पुलिस ने पेश किया ।मजिस्ट्रेट
ने बालक से पूछाः “तुम्हारा नाम ?” बालक ने निर्भयता से उत्तर दिया –
“आज़ाद” । “पिता का नाम ?” – मजिस्ट्रेट ने कड़े स्वर में पूछाः ।
ऊँची गरदन किए हुए बालक ने तुरंत उत्तर दिया – “स्वाधीन” । युवक की हेकड़ी
देखकर न्यायाधीश क्रोध से भर उठा । उसने फिर पूछाः – “तुम्हारा घर कहाँ
है?” चंद्रशेखर ने गर्व से उत्तर दिया – “जेल की कोठरी” । न्यायाधीश ने
क्रोध में चंद्रशेखर को 15 बेंत (कोड़े) लगाने की सजा दी ।
आजाद जी इलाहाबद के अल्फ्रेड पार्क जो आज उन्ही के नाम अर्थात चंद्रशेखर
आज़ाद पार्क के नाम से जाना जाता है , में 27 फरवरी 1931 को वीरगति को
प्राप्त हुए थे .. यहाँ ध्यान देने योग्य ये भी है की जिस महान की तस्वीर
तक नहीं थी ब्रिटिश सरकार के पास उसकी सटीक पहिचान कैसे कर लिया अंग्रेजों
ने ..
उनकी वीरगति स्थल जवाहर लाल नेहरू के मकान से महज कुछ ही दूरी पर है ….उस
वीर की सटीक जानकारी मिलने के बाद ब्रिटिश पुलिस ने आजाद और उनके
सहकर्मियों की चारो तरफ से घेर लिया था। खुद का बचाव करते हुए वे काफी घायल
हो गए थे और उन्होंने कई पुलिसकर्मीयो को मारा भी था।
चंद्रशेखर बड़ी बहादुरी से ब्रिटिश सेना का सामना कर रहे थे और इसी वजह से
उनके एक सहयोगी वहां से भागने में सफल रहे थे … अचूक निशाने बाज़ के आस पास
भी फटकने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे ब्रिटिश .. हमारा एक योद्धा उन
सैकड़ों पर भारी था जिसमे आज़ाद जी की आँखों में अंगारे थे और विरोधियों की
आँखों में दहशत ..
सबसे पीड़ा का विषय ये था की उन पर गोलियां बरसाने वाले तमाम सिपाही
हिंदुस्तानी थे , वो सिपाही जिन्हे गुलामी की जंजीर से मुक्त करवाने के लिए
ही उस महायोद्धा ने बंदूक उठायी थी फिर भी वही उस पर गोलियां बरसाते रहे
..लंबे समय तक चलने वाली गोलीबारी के बाद, अंततः आजाद चाहते थे की वे
ब्रिटिशो के हाथ ना लगे, और जब पिस्तौल में आखिरी गोली बची हुई थी तब
उन्होंने वह आखिरी गोली खुद को ही मार दी थी और आज़ादी के शब्द ग्रंथ में
सदा सदा के लिए अमर हो गए ..
चंद्रशेखर आजाद की वह पिस्तौल हमें आज भी इलाहाबाद म्यूजियम में देखने
मिलती है जहाँ दुर्भाग्य से उनके बलिदान के जिम्मेदार अधिकारी नॉट बावर के
नाम के आगे आज भी सर लिखा है … ऐसे बलिदानी के लहू से स्वतंत्र हुए राष्ट्र
में आज कुछ वो लोग भी विशेषाधिकार मांग रहे हैं जिनका खुद का तो दूर उनके
पुरखों का भी कोई योगदान नहीं रहा आज़ाद जैसे बलिदानी के साथ एक मिनट भी
बिताने का ….
देश की मुक्ति के लिए अपनी उग्र जवानी को स्वाहा कर गए परम बलिदनी आज़ाद को
आज सुदर्शन न्यूज की तरफ से शत शत नमन , वंदन और अभिनंदन ….
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