'अगर मौत मेरा शौर्य साबित होने से पहले मुझ पर हमला करती है तो मैं अपनी मौत को ही मार डालूंगा' - परमवीर चक्र विजेता कैप्टन मनोज पांडेय
इन शब्दों से ही आप अंदाजा लगा सकते हैं कैप्टन मनोज पांडे के अदम्य साहस का, उनकी वीरता का और उनके उस भाव का जो इस देश की रक्षा के लिए उनके मन में थे। कारगिल युद्ध के दौरान दुश्मन की गोलियों से बुरी तरह जख्मी होने के बावजूद जंग के मैदान में उनकी कैप्टन मनोज पांडेय की अंगुलियां बंदूक से नहीं हटी और उन्होंने अकेले ही दुश्मन के तीन बंकर ध्वस्त कर दिए।
फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ कहते थे कि 'अगर कोई आदमी यह कहता है कि वह मरने से नहीं डरता है तो वह झूठ बोल रहा है.... "या फिर वह गोरखा है" वास्तव में गोरखा रेजीमेंट के कई शूरवीरों ने इन शब्दो को सच साबित करके दिखाया है और उसी रेजिमेंट से थे कैप्टन मनोज पांडे, जिन्हें करगिल युद्ध के दौरान उनकी अदम्य वीरता के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र प्राप्त हुआ।
मनोज पांडेय का सीतापुर से लखनऊ का सफर -
उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में रुधा नाम का एक गांव है, मनोज का जन्म इसी गांव में हुआ। 25 जून 1975 को गोपीचंद पाण्डेय के घर एक शूरवीर ने जन्म लिया। गोपीचंद पांडे और उनकी पत्नी को इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं था कि कुछ सालों बाद उनकी पहचान उनके बेटे के नाम से होने वाली है। बचपन के कुछ साल वह अपने गांव में ही रहे बाद में उनका परिवार रहने के लिए लखनऊ आ गया। मनोज पढ़ने में तेज थे इसलिए उनको आर्मी स्कूल में दाखिला मिल गया और भारतीय सेना में आने के लिए उन्होंने खुद को तैयार करना शुरू कर दिया।
मनोज पांडेय से बन गए कैप्टन मनोज पांडेय -
12वीं की परीक्षा पास करते ही वह एनडीए की परीक्षा में भी सफल रहे। कहते हैं एनडीए के इंटरव्यू में जब मनोज से पूछा गया था कि वो सेना में क्यों जाना चाहते हैं, तो मनोज का जवाब था, "परमवीर चक्र जीतने के लिए..." NDA में चयन के बाद मनोज ट्रेनिंग के लिए पुणे के पास खड़कवासला में मौजूद राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में पहुंचे। यहां एक कड़ी कड़ी ट्रेनिंग के बाद उन्हें 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली विंग में तैनाती मिली जोकि उस वक्त जम्मू कश्मीर में अपनी सेवाएं दे रही थी। यही से कैप्टन मनोज पांडेय का सफ़र शुरू हो गया लेकिन मनोज पांडेय को इस बात का इंतजार था कि कब उनको दुश्मन से दो-दो हाथ करने का मौका मिलेगा।
पहली बार सर्च ऑपरेशन में शामिल हुए कैप्टन मनोज -
गोरखा रेजिमेंट उस समय जम्मू कश्मीर में तैनात दी। मनोज पांडेय भी वहां ड्यूटी पर तैनात थे लेकिन अब तक वो किसी बड़े ऑपरेशन का हिस्सा नही बने थे लेकिन एक दिन उनको अपने सीनियर के साथ एक सर्च ऑपरेशन में जाने का मौका मिला। यह पहला मौका था, जब उनका दुश्मन से सीधा मुकाबला हुआ। उनकी टीम ने घुसपैठ की कोशिश करने वाले आंतकियों को मार गिराया। ये मनोज पांडेय के लिए बड़ी उपलब्धि थी लेकिन मनोज दुःखी थे क्योंकि उनके एक सीनियर अधिकारी को इस ऑपरेशन में वीरगति प्राप्त हुई थी।
सियाचिन से कारगिल पहुँचे मनोज पांडेय -
कारगिल की जंग से पहले उनकी बटालियन सियाचिन में मौजूद थी। 3 महीने का उनका कार्यकाल पूरा हो चुका था और बटालियन को अपनी बदली का इंतजार था। बटालियन सारा सामान बांधकर रवानगी के आदेश का इंतजार कर रही थी, तभी अचानक आदेश आया कि बटालियन को कारगिल में बटालिक की तरफ़ बढ़ना है. वहां से घुसपैठ की ख़बर आई थी। कैप्टन मनोज की मनचाही मुराद पूरी हो गई। उन्होंने आगे कारगिल के कई ऑपरेशन को लीड किया और करीब दो महीने तक चले ऑपरेशन में कुकरथाँग, जूबरटॉप जैसी कई चोटियों को विरोधियों के कब्ज़े से आजाद कराया।
खालूबार कब्जाने अंतिम बार निकले कैप्टन मनोज पांडेय -
3 जुलाई 1999 को खालुबार चोटी पर कब्ज़ा के इरादे से आगे भारत माता का यह वीर आगे बढ़ा, वो कुछ दूर आगे निकले ही थे कि विरोधी को उनके आने की आहट हो गई। पाकिस्तानी सेना के सिपाही ऊंचाई पर थे। उन्होंने मनोज पांडेय की यूनिट पर पहाड़ियों में छिपकर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं। मनोज पांडेय के अपने साथ साथ अपनी यूनिट को नुकसान पहुचाँने से बचाना था। मनोज ने बड़ी चालाकी से अंधेरा गहराने का इंतजार किया। अंधेरा होने के बाद अपनी टीम को दो अलग-अलग रास्तों से विरोधी की तरफ बढ़ने को कहा। उनकी रणनीति काम कर गई और विरोधी उनके जाल में फंस गए। परिणाम स्वरूप मनोज ने विरोधियों के बंकर उड़ाने शुरू कर दिए। पाकिस्तानी आतंकी कुछ समझ पाते इससे पहले मनोज पांडेय ने एक के बाद एक 3 बंकर ज़मीदोज़ कर दिए। वह रेंगते हुए वह चौथे बंकर के पास पहुंचने में सफल रहे और खड़े होकर ग्रेनेड से उसे उड़ाने की कोशिश की मगर पाकिस्तानियों ने उन्हें देख लिया और अपनी मशीन गन को उनकी तरफ घुमाकर अंधाधुंध गोलियां बरसा दीं। कैप्टन मनोज बुरी तरह लहूलुहान हो चुके थे साथियों ने उन्हें कवर दिया और आगे न बढ़ने की सलाह दी लेकिन मनोज नहीं माने। मनोज खुद खालुबार टॉप पर तिरंगा फहराना चाहते थे इसीलिए वो मरणासन्न हालतों में भी आगे बढ़ते गए।
खुकरी ने पाकिस्तानियों को उतारा मौत के घाट -
चौथे बंकर के पास पहुँच कर मनोज ने अपने पास रखी खुखरी निकाली और दुश्मनों पर टूट पड़े। मनोज ने अपनी खुखरी से पाकिस्तानियों को वहीं मौत के घाट उतारकर उस बंकर पर कब्जा जमा लिया। मनोज का साहस देख उनकी टुकड़ी के अन्य सैनिकों में भी हिम्मत आ गई और वे पाकिस्तानियों से भिड़ गए। शरीर से ज्यादा खून बह जाने की वजह से वे अंतिम बंकर पर पस्त होकर पड़ गए। मनोज कुमार पांडेय की अगुवाई में की गई इस कार्यवाही में दुश्मन के 11 जवान मारे गए और छह बंकर भारत के कब्जे में आ गए। साथ ही हथियारों और गोलियों का बड़ा जखीरा भी कैप्टन मनोज की टुकड़ी के कब्जे में आ गया। उसमें एक एयर डिफेंस गन भी थी। 6 बंकर कब्जे में आ जाने के बाद तो फतह सामने ही थी और खालूबार भारत की सेना के अधिकार में आ गया था। आंखें बंद करने से पहले मनोज पांडेय खालुबार पोस्ट पर तिरंगा लहरा चुके थे।
अदम्य साहस और वीरता के लिए मिला परमवीर चक्र -
खालूबार पर भारतीय तिरंगा लहराया और इस अद्वितीय वीरता के लिए कैप्टन मनोज कुमार पांडे को मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया। 26 जनवरी 2000 को तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने देश का सबसे बड़ा वीरता सम्मान परमवीर चक्र मनोज पांडेय के पिता पिता गोपी चंद पांडे को सौंपा।