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1 सितंबर: जन्मजयंती पर नमन है भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी... जिन्होंने की ISKCON की स्थापना और दुनियाभर में फैलाई हरे रामा हरे कृष्णा की धूम

आज भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी के पावन जन्मदिवस पर सुदर्शन परिवार उन्हें नमन वंदन करता है.

Sumant Kashyap
  • Sep 1 2024 8:10AM

देश में घूमते समय या कहीं बाजार में या रेलवे स्टेशन पर अक्सर भगवा धारण किए हुए कुछ विदेशी लोग आपको 'हरे रामा हरे कृष्णा' जपते हुए मिल जाएंगे. कौन होते हैं ये लोग और इनका भगवान कृष्ण से क्या लेना देना? ज़्यादातर अंग्रेज़, अमेरिकी या यूरोपियन देशों के लोग स्वामी प्रभुपाद जी की वजह से कृष्ण भक्ति की ओर आकर्षित हुए. स्वामी प्रभुपाद जी यानि अभय चरणावृंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद. आज भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी  के पावन जन्मदिवस पर सुदर्शन परिवार उन्हें नमन वंदन करता है. 

जानकारी के लिए बता दें कि स्वामी प्रभुपाद जी विश्व में दो चीज़ों के लिए चर्चित हैं. एक भगवान कृष्ण भक्ति के लिए और दूसरा कृष्ण भक्ति को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाने के लिए. इस्कॉन (ISKCON) संस्था यानी 'इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्ण कांशसनेस' यही काम करती है और इसे स्वामी प्रभुपाद जी ने ही 1966 में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में शुरू किया था. बता दें कि मात्र 58 साल पुरानी इस संस्था के दुनिया भर में आज 850 से ज़्यादा मंदिर और 150 से ज़्यादा स्कूल और रेस्टोरेंट हैं. बता दें कि यह सभी भगवान कृष्ण की भक्ति पर ही आधारित हैं. जैसा की इस्कॉन का नाम भी सुझाता है, वे केवल कृष्ण का प्रचार प्रसार करते हैं.

दरअसल, भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद जी का जन्म आज यानी1 सितंबर 1896 को कोलकाता के बिजनेसमैन के घर में हुआ था. उनके पिता ने अपने बेटे अभय चरण का पालन पोषण ही एक कृष्ण भक्त के रूप में किया जिससे उनकी श्रद्धा कृष्ण में बढ़ती ही चली गई. प्रभुपाद ने 26 साल की उम्र में अपने गुरु सरस्वती गोस्वामी से मुलाक़ात की और 37 की उम्र में उनके विधिवत दीक्षा प्राप्त शिष्य बन कर पूरी तरह कृष्ण भक्ति में लीन हो गए.

जानकारी के लिए बता दें कि प्रभुपाद अलग अलग गुरुओं से मिलते रहे और एक गुरु भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने उन्हें सुझाया कि वे अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ज्ञान का प्रसार करें. प्रभुपाद ने श्रीमद् भगवद्गीता पर एक टीका लिखी और गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग दिया.

बता दें कि  सन 1959 में संन्यास ग्रहण के बाद भक्ति वेदान्त स्वामी प्रभुपाद ने वृन्दावन, मथुरा में 'श्रीमद्भागवत पुराण' का अनेक खंडों में अंग्रेज़ी में अनुवाद किया. आरंभिक तीन खंड प्रकाशित करने के बाद सन 1965 में अपने गुरुदेव के अनुष्ठान को संपन्न करने अमेरिका को निकले. जब वे मालवाहक जलयान द्वारा पहली बार न्यूयॉर्क नगर में आए तो उनके पास एक पैसा भी नहीं था. अत्यंत कठिनाई भरे क़रीब एक वर्ष के बाद जुलाई, 1966 में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ ('इस्कॉन' ISKCON) की स्थापना की. सन 1968 में प्रयोग के तौर पर वर्जीनिया, अमेरिका की पहाड़ियों में नव-वृन्दावन की स्थापना की. दो हज़ार एकड़ के इस समृद्ध कृषि क्षेत्र से प्रभावित होकर उनके शिष्यों ने अन्य जगहों पर भी ऐसे समुदायों की स्थापना की.

1972 में टेक्सस के डलास में गुरुकुल की स्थापना कर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की वैदिक प्रणाली का सूत्रपात किया. 14 नवंबर, 1977 ईं को 'कृष्ण-बलराम मंदिर', वृन्दावन धाम में अप्रकट होने के पूर्व तक श्रील प्रभुपाल ने अपने कुशल मार्ग निर्देशन के कारण 'इस्कॉन' को विश्व भर में सौ से अधिक मंदिरों के रूप में विद्यालयों, मंदिरों, संस्थानों और कृषि समुदायों का वृहद संगठन बना दिया. उन्होंने 'अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ' अर्थात्‌ 'इस्कॉन' की स्थापना कर संसार को कृष्ण भक्ति का अनुपम उपचार प्रदान किया. आज विश्व भर में इस्कॉन के आठ सौ से ज्यादा केंद्र, मंदिर, गुरुकुल एवं अस्पताल आदि प्रभुपाद की दूरदर्शिता और अद्वितीय प्रबंधन क्षमता के जीते जागते साक्ष्य हैं.

श्री रूप गौड़िया मठ प्रयागराज, उत्तर प्रदेश वह जगह थी जहां भक्तिवेदांत जी जीने के लिए इस्तेमाल किया था, उन्होंने इस के पुस्तकालय में लिखी और पढ़ाई की थी, यहां उन्होंने गौड़ा «पत्र पत्रिका को संपादित किया और यह वह जगह है जहां उन्होंने मूर्तिकरण भगवान चैतन्य का जो राधा कृष्ण के देवताओं के बगल में वेदी पर खड़ा है (नाम का अस्स्रा अस्स्राः आरए द्वा विनोदविहिका आरए «जे एस '). सितंबर 1 9 5 9 में उनकी यात्रा के दौरान उन्होंने अभय बाबू के रूप में सफेद में कपड़े पहने इस मठ के दरवाज़े में प्रवेश किया, लेकिन भगवा, एक संन्यासी में तैयार रहना होगा.

उन्होंने संन्यास नाम स्वामी को प्राप्त किया (शीर्षक से), शीर्षक स्वामी के साथ भ्रमित होने के लिए नहीं. इस मठ में, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में, अभय चरण भक्तिविदांत जी ने वैष्णव को अपने मित्र और गॉडब्रदर भक्ति प्रज्ञाना केशव से प्रतिज्ञा की, वैष्णव को त्याग दिया, और इसके बाद उन्होंने अकेले भागवत की पहली पुस्तक के सत्रह अध्यायों को कवर करने वाले पहले तीन खंडों को प्रकाशित किया. पुराण, एक विस्तृत टिप्पणी के साथ चार सौ पन्नों के तीन खंडों को भरना. प्रथम खंड का परिचय चैतन्य महाप्रभाव का एक जीवनी स्केच था. उन्होंने भारत छोड़ दिया, जलदूट नामक माल ढुलाई जहाज पर मुफ्त मार्ग प्राप्त करना, उद्देश्य और दुनिया भर के चैतन्य महाप्रभु के संदेश को फैलाने के लिए अपने आध्यात्मिक गुरु की शिक्षा को पूरा करने की आशा के साथ. उनके कब्जे में एक सूटकेस, एक छाता, शुष्क अनाज की आपूर्ति, लगभग आठ डॉलर मूल्य भारतीय मुद्रा और किताबों के कई बक्से थे.

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