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28 अगस्त: “1965 में इस्लामिक मुल्क पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध का आज हुआ था समापन".. समस्त बलिदानियों को शत शत नमन

पढ़िए एक वीर योद्धा के युद्ध संस्मरण और जानिए कि किस हाल में लड़े थे हमारे जांबाज़.

Rahul Pandey
  • Aug 28 2020 8:02AM

चीन से 1962 के युद्ध के तुरंत बाद ही पाकिस्तान ने सोचा कि भारत की फ़ौज पस्त है और उसने भी धावा बोल दिया पर ये साबित हुई थी उसकी सबसे बड़ी गलतफहमी और उसका अंजाम जम कर भोगा था पाकिस्तान ने . उस युद्ध को हुए आज 52 वर्ष पूरे हुए हैं उन सभी वीरों की गौरवगाथा को सादर वन्दन करते हुए आज आईये नमन करते हैं हम सभी ज्ञात और अज्ञात बलिदानियों को जिनके चलते भारत की एकता और अखंडता कायम रही.

उस महायुद्ध में शामिल रहे एक पराक्रमी मेजर श्री रतन सिंह यादव जी का वो संस्मरण पढ़े जिसे पढ़ कर आप यकीनन रोमांचित हो उठेंगे और खुद से ही बोल उठेंगे कि जय हिन्द की सेना. पढ़ें उस युद्ध में पाकिस्तानियों को धूल चटा चुके मेजर रतन सिंह यादव जी का वो आँखों देखा और खुद से लड़ा गया युद्ध का वास्तविक वर्णन —

युद्ध की पृष्ठभूमि-विशाल भारत का विखण्डन आरभ हुआ तो बर्मा, श्रीलंका आदि स्वतन्त्र राष्ट्र बनते चले गये। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति, भारत विभाजन का दुर्भाग्य पूर्ण तथा रक्त रंजित अध्याय भी 1947 के आते-आते लिख दिया गया। इसकेपश्चात् कई नवोदित राष्ट्रों में प्रजातन्त्रीय व्यवस्था से चुनी गयी सरकारों का सैनिक तानाशाहों ने तता पलट दिया। 

अब म्यंमार तब बर्मा, श्री लंका तथा विशेषकर पाकिस्तान में तो प्रधानमन्त्री की हत्या तक कर दी गयी। ऐसे में प्रधानमन्त्री पद के लालच में भारत विभाजन तक का पाप करने वाले गाँधी के प्रिय जवाहरलाल नेहरु को लगा कि यह चारों ओर के पड़ोसियों के घर में लगी आग कहीं मेरी कुर्सी तक न आ पहुँचे। इससे भयभीत नेहरु ने भारतीय सेना को वर्ष प्रति वर्ष कमजोर करने का सिलसिला आरभ कर दिया।

सेनाध्यक्ष जिसका स्थान वरीष्ठता क्रम में राष्ट्राध्यक्ष गवर्नर जनरल के बाद होता था, घटाकर मन्त्रीमण्डल के सदस्यों के भी नीेचे गिरा दिया गया। रक्षा-बजट प्रतिवर्ष कम से कमतर होता गया। इसका दुष्परिणाम 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में हमारी शर्मनाक पराजय के रूप में राष्ट्र ने झेला। हमारे सैनिकों के पास द्वितीय विश्वयुद्ध कीपुरानी तकनीक की थ्री नॉट थ्री राइफलें एयूरेशन की घोर कमी..इसी के साथ साथ बर्फानी प्रदेश की हाड़ कँपा देने वाली सर्दी से बचाव के कपड़ों का नितान्त अभाव ।

 यहाँ तक कि जूते तक न थे। ऐसे हालात में भी हमारी सेना की 13 कुमाऊँ रेजिमेंट की एक कपनी ने वीरता का जो इतिहास रचा, उसका उदाहरण विश्व के सैनिक इतिहास में दुर्लभ है। हमें गर्व है कि इस रेजांगला का स्वर्णिम इतिहास लिखने वाले हरियाणा के अहीरवाल क्षेत्र के वीर यदुवंशी ही थे।

चीनी आक्रमण के तुरन्त पश्चात् आपातकाल घोषित कर दिया अब सेना की ओर कुछ-कुछ ध्यान दिया जाने लगा। पर तीन वर्ष से भी कम समय में रक्षा बजट पर कंजूसी बरतने वाली परपरा की अयस्त सरकार अधिक कुछ न कर पायी। तब तक चीन के चेले पाकिस्तान ने सोचा, चीन की तरह हम भी भारत को पीट लेंगे, काश्मीर छीन लेंगे। 

पर पाकिस्तान के इरादे इसलिए सफल नही हो सके कि हमने 1962 के युद्ध से थोड़ा-बहुत सीख कर सेना को पहले से अधिक मजबूत कर लिया था। 1965 के युद्ध में हम अपनी विजय पर कितना भी गर्व करें, पर यह कोई पूरी तरह निर्णायक युद्ध न था। कश्मीर में हम भले ही लाभ की स्थिति में थे, पर सीमा के अन्य क्षेत्रों में हमें हानि भी उठानी पड़ी थी।

 पर काश्मीर में सेना के लहू ने जो क्षेत्र जीता लिया, उसे ताशकन्द में लिखे कागज की स्याही ने छीन लिया। जिस काश्मीर को हम भारत का अभिन्न अंग कह कर वर्षों से चिल्ला रहे थे, उस अभिन्न अंग को हमारे भीरु, दबू तथा समझौतावादी राजनैतिक नेतृत्व ने रूस के दबाव में वापिस शत्रु का अभिन्न अंग बना दिया। सेना के मनोबल पर इसका जो दुष्प्रभाव हुआ, उसे मेरे अग्रज कैप्टन नौरंग सिंह के शदों में जो उस युद्ध में सक्रिय भागीदार थे कहूँ ”हम सब रोते हुए वापिस आ गये” अच्छा हुआ जो श्री लालबहादुर शास्त्री इस समझौते के आघात को न सह सके और अपने प्राण तक दे बैठे, वरना ताशकन्द से लौटने पर उनकी बहुत किरकिरी होती।

हमारी यह अदूरदर्शी, आत्मघाती समझौतावादी परपरा सन् 1971 के शिमला समझौते में भी बनी रही। हमने तो पाकिस्तान के एक लाख के लगभग सैनिक कैदी लौटा दिये, पर अपने लगाग 50 सैनिक कैदियों को पाकिस्तान से छुड़ाना भूल गये। न जाने उनका क्या हुआ होगा। जो जुल्फिकार अलि भुट्टो शिमला में गिड़गिड़ा रहा था, वही अपनी गली में जाते ही शेर बनकर दहाड़ने लगा। ”हम घास खायेंगे, पर एटमबब बनायेंगे। हिन्दुस्तान के हजार टुकड़े करेंगे, हजार वर्ष तक लड़ेंगे।”

 संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारे विदेशमन्त्री सरदार स्वर्ण सिंह को ‘इण्डियन डॉग’ तक कहकर अपने पुरखों को भी अप्रत्यक्ष रूप से गाली दी। एटम बब तो भारत से ज्यादा नहीं तो बराबर के तो बना ही लिए। और भी बनाने में लगे हुए हैं। 

हजार वर्ष तक लड़ने का सिलसिला चालू ही है। मेरे सेना में आने का कारण- मेरे अग्रज सूबेदार नौरंगसिंह भारत विभाजन से पूर्व की मियाँमीर की छावनी लाहौर में सेना में भरती हो चुके थे। मेरी पूज्य भाभी जी सरती देवी को फिरोजपुर, मेरठ, अबाला आदि सैनिक छावनियों में काी-कभी उनके साथ रहने का अवसर मिला। गर्मियों में स्कूल की लबी छुट्टियाँ होने पर मैं भी उनके पास चला जाया करता।

 फौज का जीवन मुझे काफी पसन्द आता था। शिक्षा पूर्ण कर 1961 में अपने गाँव के निकट स्थायी रूप से शिक्षक नियुक्त हो गया। 1962 में चीन ने भारत पर धोखे से अचानक आक्रमण कर दिया। देश में आपातकाल घोषित कर दिया गया।ााई नौरंगसिंह अपनी बटालियन 16 पंजाब के साथ मोर्चे पर चले गये।


भाभीजी घर लौट आई। मुझ से कहने लगी, ”रतन! जो तू ये मास्टरी वास्टरी की नौकरी कर रहा है, ये तो जिनानियों का काम है। देश पर आपत्ति आई है। तेरा भाई कम पढ़ा लिखा है, सूबेदार बन गया। तू तो बीस वर्ष का पढ़ा लिखा जवान है। फौज में ऑफिसराी बन सकता है।” तत्कालीन पंजाब सरकार ने (तब हरियाणा न बना था) अपने समस्त विभागों को सर्कू लर जारी कर सेना के लिए वालिण्टियर माँगे।

 मैंने अपने हैडमास्टर श्री सोमदत्त जी कौशिक को प्रार्थनापत्र देकर सेना के लिए मेरा नाम भेजने का अनुरोध किया। उनका उत्तर था ”इतनी ही तनखा फौज में मिलेगी (तब एक सौ रूपये थी) घर के पास की आराम की नौकरी छोड़कर क्यों मरने के लिए फौज में जाना चाहता है?” मुझे मध्यकालीन वीर काव्य (आल्हा-उदल) के रचियता कवि जगनिक की पंक्तियाँ याद आ गई । मैंने कहा- ”बारह बरस तक कुकर जिये, और तेरह तक जिये सियार। बरस अठारह छत्री जिये, आगे जिये को धिक्कार।।

” हम तो मरने के लिए ही बने हैं। मेरा नाम भर्ती कार्यालय महेन्द्रगढ़ में भेज दिया। मेरी योग्यतानुसार मुझे सेना-शिक्षा कोर में हवलदार के पद पर सीधे नियुक्ति मिली। युद्ध के संस्मरण– 1965 के युद्ध के समय मुझे जालन्धर कैण्ट स्थित सप्लाई डिपो केरियर की सुरक्षा तथा युद्ध के मोर्चे से घायल होकर आने वाले सैनिकों को सैनिक अस्पताल में भर्ती कराने की जिमेदारी सौंपी गयी।

 मेरी सहायता के लिए पाँच नये-नये सैनिक भी थे। अमृतसर से लाहौर जाने वाले मार्ग पर पाकिस्तान की सीमा में इच्छोगिल नहर है। इस नहर पर पाकिस्तानी सेना पक्के सीमेण्टेड बैंकरों में अमेरीकी आधुनिकतम हथियारों से सुसज्जित हमारे मुकाबले के लिए पहले से ही तैयार थी।

हमारे सेना की थर्ड जाट यूनिट को नहर के पार पाकिस्तानी इलाके पर कजा करने का अत्यन्त दुस्साहसपूर्ण खतरे से भरपूर चुनौती पूर्ण टास्क सौंपा गया। बहादुर जाटों ने जान हथेली पर रखकर न जाने कितना रक्त बहाकर इच्छोगिल नहर के पानी को लाल कर दिया। सफलता मिली, पर मूल्य बहुत चुकाया.. रात को घायलों से भरी ट्रेन अमृतसर से जालन्धर पहुँची। 

मैं एबुलेंस की अस्पताल की गाड़ी, स्टेचर तथा अपने साथी सैनिकों को लेकर घायल सैनिकों को स्टेचर पर रखने लगा तो एक बहादुर जाट सैनिक को अन्धेरे में ध्यान से देखा। उसके चेहरे में गोली धँसी हुई थी। सूजन से एक आँख बन्द हो चुकी थी। उसने हाथ उठाकर मुझे राम-राम कहने का प्रयास किया। मेरी आँखों में आँसू आ टपके।


धन्य है वह वीर जवान, धन्य है वह सैनिक परपरा जिसने ऐसी शोचनीय शारीरिक स्थिति में भी अभिवादन की सैनिक परपरा को स्मरण रखा। वह मार्मिक दृश्य आज भी मेरी आँखों में सजीव है। जालन्धर कैण्ट में रामामण्डी के निकट जी.टी. रोड से जाते हुए सैनिकों की गाड़ियों को आग्रहपूर्वक रोककर भोजन सामग्री, फल-फ्रूट तथा मालाओं से लादकर सिक्ख भाईयों ने राष्ट्रभक्ति का जो जोश दिखाया, वह अभूतपूर्व था।

 इण्डियन आर्मी जिन्दाबाद भारत माता की जय से आसमान गूंजता था। आज भले ही कुछ गिने-चुने, पाकिस्तान द्वारा बरगलाये सिक्ख युवक तथा राष्ट्र प्रेमी सिक्ख जनता द्वारा बहिष्कृत, थके माँदे, नेतृत्व तथा पद लोलुप तथाकथित नेता भारत के विरुद्ध विषवमन करें पर पंजाब तथा देश के विभिन्न भागों में सिक्खों की देशभक्ति में किसी को शक नहीं होना चाहिए।

ऐसे गुमराह सिक्ख युवकों को सिक्ख जाति केगौरवपूर्ण इतिहास को स्मरण करते हुए गुरु अर्जुन देव तथा जहाँगीर, गुरु तेगबहादुर तथा औरंगजेब, गुरु गोविन्द सिंह और उनके चारों साहिबजादों तथा औरंगजेब के साथ बन्दा बहादुर और फर्रुखशयर के नाम न भूलने चाहिए। दूर इतिहास की गहराई में न जायें तो देश विभाजन के समय पाकिस्तान से विस्थापित सिक्खों के साथ जो भयानक जुल्म किये गये, उनका आँखों देखा हाल बताने वाले कितने ही आज भी जिन्दा है। 

कितने ही राठौर, चौहान सिक्ख राजपूत, कितने ही सेठी, बाजवा, घुमन इस्लाम कीाूनी तलवार का या तो शिकार हो गये या फिर सनम सेठी या जफर इकबाल राठौर बन गये । कोई उदाहरण है क्या जब किसी इस्लाम के अनुयायी ने विभाजन के समय अपना महजब भयभीत होकर बदला हो।वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान 1971 के युद्ध की पराजय का बदला, बंग्लादेश का बदला लेकर खालिस्तान का दिवास्वप्न दिखाकर सिक्ख-हितैषी होने का राजनैतिक पाखण्ड कर रहा है। 

अरे ये तो वही पाकिस्तानी हैं जिन्होने साझे भारत के साझे शहीदेआजम भगतसिंह के नाम पर लाहौर के चौराहे का नाम तक नहीं करने दिया। तर्क है पाकिस्तान की भूमि पर किसी गैरमुस्लिम के नाम पर कोई सड़क या स्मारक नहीं होगा। सूर्यास्त होने को था। जालन्धर कैण्ट से कुछ दूरी पहले सतलुज नदी पर रेलवे पुल है। इसी रेल मार्ग से अमृतसर तक हमारी सेनाओं को रसद पहुँचायी जाती थी।

पाकिस्तान के तीन छाताधारी सैनिक पास के गन्ने के खेतों में उतर गये। योजना रेल पुल को उड़ाने की थी। गाँववालों ने कैण्ट के हैडक्वाटर को सूचना दी। रियर में तो नाम चारे के सैनिक रहते हैं। उन्हें लेकर हमने गन्ने के खेतों को घेर लिया। पाकिस्तानी छाताधारियों को चेतावनी दी गयी कि जान बचाना चाहते हो तो हथियारों से मैगजीन अलगकर, गले में डालकर, हाथ ऊपर कर आत्म समर्पण कर दें।

 पहले दो चेतावनियाँ निष्फल रही। अन्त में तीसरी बार मशीनगनों से गन्ने के खेतों के छलनी करने का आर्डर सुनते ही एक लबा-चौड़ा पाकिस्तानी ऑफिसर निर्देश का पालन करते हुए बाहर आ गया। हमारे ऑफिसर ने उसके हथियार लेकर आँखों पर पट्टी तथा दोनों हाथ पीछे की ओर बाँध कर सड़क पर खड़ी जीप की ओर ले चले।

कुछ तो मार्ग उबड़-खाबड़ था, कुछ आँखें बन्धी थी, तो कुछ बेचारा घबराया हुआ, धीरे-धीरे चल रहा था। हमारे मिलट्री-पुलिस के एक जवान ने उसे आगे धकेलते हुए पीठ पर एक घूंसा मार दिया। हमारे ऑफिसर ने उस मिलेट्री-पुलिस के जवान को बुरी तरह डाँटा कहा कि कैदी के साथ भी इन्सानियत का बर्ताव करना चाहिए। यह है हमारी संस्कृति और मानवता।

 दूसरी ओर हमारे कारगिल में कैद हुए कैप्टन सौरभ कालिया के साथ जिस दरिन्दगी और पाशविकता का बर्ताव किया, उसकी गूँज अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय तक गूँज रही है। कैप्टन कालिया का मृत शरीर जब लौटाया तो उसकी अगुंलियों के नाखून तक न थे। उस वीर के कान में गोली मारी गयी थी। जुल्म करने के निकृष्टतम तरीके तो शायद पाकिस्तानी सेना को ट्रेनिंग में सिखाये जाते हैं।

युद्ध के कारण अचानक सेना को बहुत बड़ी संया में सीमा पर आना पड़ा था। सप्लाई डिपो जालन्धर से स्थान्तरित कर सीमा के कुछ निकट यास आ चुका था। खाद्य सामग्री भण्डारण के लिए फील्ड टैण्ट भी पर्याप्त न थे। ऐसे में हमारे कमाण्डिग ऑफिसर लेटिनेन्ट कर्नल ए.के.गुहा ने बाबा राधास्वामी जी से प्रार्थना की। बाबा जी ने कहा-”सारा डेरा आपके आधीन है। डेरा देश से बड़ा नहीं है।”

 हमने डेरा के कमरों में फौज का राशन भर दिया। युद्ध की समाप्ति पर वापिस जालन्धर लौटने से पहले बाबा जी का आभार व्यक्त करने सभी आँफिसर तथा जवान गये। बाबा ने आशीर्वाद दिया। सितबर मास आ गया है। सरकार गर्व से 1965 के युद्ध के उपलक्ष्य में विजय समारोह आयोजन करती है.. इंग्लैण्ड की महारानी का बेटा अफगानिस्तान के मोर्चे पर वर्षों से अपने देश के समान के लिए लड़ रहा है।

 है कोई हमारे 68 वर्ष के इतिहास में ऐसा उदाहरण जब किसी प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति, राज्यपाल, या मन्त्री का बेटा भारत माता की रक्षा हेतु युद्ध क्षेत्र में गया हो। सिर्फ सभाओं में नारा लगायेंगे-जय जवान जय किसान. लेकिन असल हकीकत इस से एकदम उलट ही है..

वैसे भी सेना का एक जवान सरहद पर मरता है तो अप्रत्यक्ष रूप से एक किसान भी मरता है, क्योंकि मरने वाला एक किसान का बेटा है किसी राजनेता का नहीं। अन्त में मैं हमारे देश के सभी नेताओं को नीति शास्त्र के प्रकाण्ड पंडित चाणक्य के शब्दों को याद दिलाना चाहता हॅूँ जिसकी नीति ने एक साधारण बालक चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया था।

 ”चन्द्रगुप्त! जिस दिन सेना तुम से अपने अधिकारों की माँग करने लग जाये, उस दिन तुहारे साम्राज्य का पतन आरभ हो जायेगा।” सम्पूर्ण सुदर्शन परिवार आज इस पावन और गौरवान्वित करने वाले विजय दिवस पर भारत की बलिदानी फ़ौज के उन सभी ज्ञात और अज्ञात वीरों को नमन , वंदन और अभिनंदन करता है जो अपने व्यक्तिगत जीवन से बहुत ऊपर उठ कर भारत माता की एकता और अखंडता की रक्षा करते हुए सदा सदा के लिए अमर हो गए और ऐसे वीरों को भुला देने वाले उस शासन पर सवाल उठाता था कि उन्हें समुचित सम्मान क्यों नहीं …

जय हिन्द की सेना …

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