नेपाल में पिछले कुछ दिनों से चल रही राजनीतिक उठा-पटक कहीं न कहीं अब थमती न नज़र आ रही है। चीन के हस्तक्षेप के चलते नेपाल की राजनीति पूरी तरह हिलती नज़र आ रही थी। पर अब परिस्थिती बदलती नजर आ रही है। प्रधानमंत्री के.पी.ओली, सुप्रीम कोर्ट के आदेश को मानने को तैयार हो गये हैं। उन्होनें तत्काल इस्तीफा देने से मना कर दिया है और संसद का सामना करने को तैयाद हैं।
दरअसल नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी.ओली वैसे तो चीन के पक्षधर माने जाते हैं, पर पिछले कुछ समय से उनके तेवर बदले हैं। उनकी भारत के साथ नजदीकी बढ़ती नज़र आ रही है। उन्होंने भारत को अपना सबसे करीबी सहयोगी बताया है जिससे चीन को स्पष्ट संदेश जाता है, कि नेपास अब चीन के चुंगुल से निकलना चाहता है।
बता दें कि मंगलवार को नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि संसद की भंग की गई प्रतिनिधि सभा को बहाल किया जाये। प्रधानमंत्री ओली की अनुशंसा पर राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने पिछले साल 20 दिसंबर को संसद की प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया था और इस साल 30 अप्रैल से 10 मई के बीच नए सिरे से चुनाव कराने की घोषणा की थी।
संसद की प्रतिनिधि सभा को भंग होते देख चीन नेपाल में पूर्णता सक्रीय हो गया था। दूसरे देश में सरकार गिराने में चीन की सबसे कुशल राजदूत हाओ यांकी ने ओली से मुलाकार की। जिसने नेपाल सहित भारत की भी चिंती बड़ा दी थी। उनकी इस मुलाकात को जहां एक तरफ नेपाल की राजनीति में दखल के तौर पर देखा जा रहा था। तो वहीं भारत ने नेपाली पीएम के संसद को भंग करने के फैसले को नेपाल का 'आंतरिक मामला' बताया था।
बता दें कि नेपाल के पीएम ने कुछ समय से भारत के खिलाफ जाने का मन बना लिया था। नेपाल का नया नक्शा जारी कर भारत के कुछ हिस्सों को अपना बताया था। जबकि चीन ने हुमला में नेपाल की कई किलोमीटर जमीन पर अपना कब्जा कर लिया है। पर कही न कहीं नेपाल का रुख एक बार फिर भारत के प्रति बदला है। भारत ने हाल ही में नेपाल को कोरोना वैक्सीन देकर मदद की थी। अब नेपाल को समझ आ रहा है कि कौन उसके साथ है? और कौन उसकी जमीन पर कब्जा कर रहा है?