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31 मार्च : जन्मजयंती सिक्खों के द्वितीय धर्मगुरु गुरु अंगद देव जी...गुरु नानक देव जी ने अपने बेटों की जगह इन्हें चुना था उत्तराधिकारी

जन्मजयंती पर सुदर्शन परिवार उन्हें बारंबार नमन करते हुए उनकी यशगाथा को सदा सदा के लिए जन जन तक पहुंचाने का संकल्प लेता है.

Sumant Kashyap
  • Mar 31 2024 7:49AM

सिख धर्म के द्वितीय धर्मगुरु हिंदुस्थान की वो अनमोल विभूति हैं जो अनंतकाल तक मानवता व धर्मरक्षा की प्रेरणा रहेंगे. आज यानी 31 मार्च को द्वितीय धर्मगुरु गुरु अंगद देव जी की जन्मजयंती है. सिर्फ सिख समाज ही नहीं बल्कि मानवता तथा इंसानियत को मानने वाले दुनिया भर के लोग आज गुरु अंगद देव जी जन्मजयंती पर बधाई दे रहें हैं.जन्मजयंती पर सुदर्शन परिवार उन्हें बारंबार नमन करते हुए उनकी यशगाथा को सदा सदा के लिए जन जन तक पहुंचाने का संकल्प लेता है.

सिखों के दूसरे गुरु अंगद देव जी का जन्म 31 मार्च 1504 ईस्वी को हुआ था. साल 1552 में मार्च की ही 28 तारीख को उन्होंने शरीर का त्याग किया था. उनका वास्तविक नाम लहणा था और गुरु नानक जी के शिष्य भाई थे. उनकी भक्ति और योग्यता से गुरु नानक देव जी इतने प्रभावित थे कि उन्हें अपना अंग मानते हुए अंगद नाम दिया और जब वह सिखों के दूसरे गुरु बने तो गुरु अंगद देव कहलाए.

जानकारी के लिए बता दें कि जब गुरु नानक देव जी ने यात्राएं शुरू की थीं तो उनके साथ लहणा, मरदाना, रामदास और बाला रहते थे. बताया जाता है कि गुरु नानक देव जी इन चारों के साथ ही अपने दोनों बेटों की भी समय-समय पर परीक्षा लेते रहते थे. जब उत्तराधिकारी नियुक्त करने की बारी आई तब भी गुरु नानक देव जी ने दोनों पुत्रों, लहणा यानी गुरु अंगद देव जी और बाकी तीनों शिष्य की कठिन परीक्षा ली. इसमें बाकी सब असफल रहे. हर परीक्षा में खरा उतरने के बाद अंगद देव जी को उन्होंने अपना उत्तराधिकारी बनाया था.

वहीं, गुरु नानक देव जी ने ऐसी एक-दो नहीं, कुल सात परीक्षाएं ली थीं. पहली परीक्षा में उन्होंने कीचड़ के ढेर में पड़ी घास-फूस की गठरी सिर पर उठाने के लिए कहा. इसमें अंगद देव जी ही सफल रहे. फिर नानक देव जी ने एक धर्मशाला में मरी चुहिया उठाकर इन सभी से बाहर फेंकने के लिए कहा था. तब का समय ऐसा था कि ऐसा काम सिर्फ शूद्र किया करते थे. इसके बावजूद जात-पात की परवाह किए बिना अंगद देव जी ने चुहिया उठाकर बाहर फेंक दी थी.

ऐसे ही तीसरी परीक्षा के दौरान गुरु नानक देव जी ने मैले में से कटोरा निकालने के लिए कहा तो उनके दोनों पुत्रों ने ऐसे करने से मना कर दिया था. अंगद देव जी गुरु का आदेश मानते हुए इस काम को करने के लिए भी खुशी-खुशी तैयार हो गए थे. अगली परीक्षा में नानक देव जी ने भीषण सर्दी के दौरान आधी रात को धर्मशाला की टूटी दीवार बनाने का हुक्म दिया तो अंगद देव जी इसके लिए भी तुरंत तैयार हो गए थे. ऐसे ही पांचवीं परीक्षा के दौरान गुरु नानक देव जी ने एक और सर्दी की रात में सबको रावी नदी के किनारे जाकर कपड़े धुलने के लिए कहा तो अंगद देव जी ने आधी रात को ही जाकर कपड़े धुलना शुरू कर दिया था.

बुद्धि कौशल और आध्यात्मिक योग्यता की भी गुरु अंगद देव जी में कोई कमी नहीं थी. छठवीं बार गुरु नानक देव जी ने इसी की परीक्षा ली. उन्होंने एक रात पूछा कि कितनी रात बीत चुकी है. तब अंगद देव जी ने उत्तर दिया कि परमेश्वर की जितनी रात बीतनी थी, वो तो बीत गई. अब जितनी बाकी रहनी चाहिए, उतनी ही रात बची है. इस पर गुरु नानक देव जी समझ गए कि गुरु अंगद देव जी अध्यात्म की चरम सीमा पर पहुंच चुके हैं.

इसके बाद सातवीं परीक्षा लेने के लिए गुरु नानक देव जी ने शमशान में मुर्दा खाने के लिए कहा तो अंगद देव जी इसके लिए भी तुरंत तैयार हो गए. इसके बाद गुरु नानक देव जी ने उनको सीने से लगा लिया और अपना उत्तराधिकारी बनाया.

इस तरह से गुरु अंगद देव जी सिखों के दूसरे गुरु बने और 7 सितम्बर 1539 से 28 मार्च 1552 तक रहे. गुरु अंगद देव जी को ही पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी का जन्मदाता माना जाता है. बताया जाता है कि पंजाब के हरिके गांव में उनका जन्म हुआ था और उनके पिता फेरू मल एक व्यापारी थी. उनकी मां का नाम रामो था. कई बार माता को माता सभीराय, मनसा देवी और दया कौर के नाम से भी जाना जाता है.


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