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30 मार्च : आज ही जेनेवा में प्राण त्यागे थे क्रांतिदूत श्यामजी कृष्ण वर्मा जी ने... उनके अस्थिकलश को 73 साल बाद भारत लाए नरेंद्र मोदी

आज वीरता और पराक्रम की उस महान मूर्ति को सुदर्शन परिवार बारम्बार नमन करते हुए उनके गौरवगान को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेता है .

Sumant Kashyap
  • Mar 30 2024 7:52AM
भारत की  स्वाधीनता के तमाम रहस्य जो तथाकथित कारणों से छिपाए गए और एक ही परिवार के आस पास घुमाए गये , उन तमाम रहस्यों में से एक हैं आज के दिन बलिदान हुए क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा जी. भारत के स्वाधीनता संग्राम में जिन महापुरुषों ने विदेश में रहकर क्रान्ति की मशाल जलाये रखी, उनमें श्यामजी कृष्ण वर्मा का नाम अग्रणी है.

4 अक्तूबर, 1857 को कच्छ (गुजरात) के मांडवी नगर में जन्मे श्यामजी पढ़ने में बहुत तेज थे. इनके पिता श्रीकृष्ण वर्मा जी की आर्थिक स्थिति अच्छी न थी; पर मुम्बई के सेठ मथुरादास ने इन्हें छात्रवृत्ति देकर विल्सन हाईस्कूल में भर्ती करा दिया. 

वहां वे नियमित अध्ययन के साथ पंडित विश्वनाथ शास्त्री की वेदशाला में संस्कृत का अध्ययन भी करने लगे. मुम्बई में एक बार महर्षि दयानन्द सरस्वती आए. उनके विचारों से प्रभावित होकर श्यामजी ने भारत में संस्कृत भाषा एवं वैदिक विचारों के प्रचार का संकल्प लिया.

ब्रिटिश विद्वान प्रोफेसर विलियम्स उन दिनों संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष बना रहे थे. श्याम जी ने उनकी बहुत सहायता की. इससे प्रभावित होकर प्रोफेसर विलियम्स ने उन्हें ब्रिटेन आने का निमन्त्रण दिया. वहां श्याम जी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के अध्यापक नियुक्त हुए; पर स्वतन्त्र रूप से उन्होंने वेदों का प्रचार भी जारी रखा.

कुछ समय बाद वे भारत लौट आए. उन्होंने मुम्बई में वकालत की तथा रतलाम, उदयपुर व जूनागढ़ राज्यों में काम किया. वे भारत की गुलामी से बहुत दुखी थे. लोकमान्य तिलक ने उन्हें विदेशों में स्वतन्त्रता हेतु काम करने का परामर्श दिया. इंग्लैण्ड जाकर उन्होंने भारतीय छात्रों के लिए एक मकान खरीदकर उसका नाम इंडिया हाउस (भारत भवन) रखा.

शीघ्र ही यह भवन क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बन गया. उन्होंने राणा प्रताप और शिवाजी के नाम पर छात्रवृत्तियां प्रारम्भ कीं. 1857 के स्वातंत्र्य समर का अर्धशताब्दी उत्सव 'भारत भवन' में धूमधाम से मनाया गया. उन्होंने 'इंडियन सोशियोलोजिस्ट' नामक समाचार पत्र भी निकाला. 

उसके पहले अंक में उन्होंने लिखा - मनुष्य की स्वतन्त्रता सबसे बड़ी बात है, बाकी सब बाद में उनके विचारों से प्रभावित होकर वीर सावरकर जी, सरदार सिंह जी राणा  जीऔर मादाम भीकाजी कामा उनके साथ सक्रिय हो गये। लाला लाजपत राय, विपिनचन्द्र पाल आदि भी वहां आने लगे. 

विजयादशमी पर्व पर 'भारत भवन' में वीर सावरकर जी और गांधी  दोनों ही उपस्थित हुए. जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के अपराधी माइकेल ओ डायर का वध करने वाले ऊधम सिंह जी के प्रेरणास्रोत श्यामजी ही थे. अब वे शासन की निगाहों में आ गये, अतः वे पेरिस चले गए.

वहां उन्होंने 'तलवार' नामक अखबार निकाला तथा छात्रों के लिए 'धींगरा छात्रवृत्ति' प्रारम्भ की. भारतीय क्रांतिकारियों के लिए शस्त्रों का प्रबन्ध मुख्यतः वे ही करते थे. भारत में होने वाले बमकांडों के तार उनसे ही जुड़े थे. अतः पेरिस की पुलिस भी उनके पीछे पड़ गए. उनके अनेक साथी पकड़े गए. 

उन पर भी ब्रिटेन में राजद्रोह का मुकदमा चलाया जाने लगा. अतः वे जेनेवा चले गए. आज ही के दिन अर्थात 30 मार्च, 1930 को श्यामजी ने मातृभूमि से बहुत दूर जेनेवा में ही अन्तिम सांस ली और 22 अगस्त, 1933 को ३ वर्ष बाद उनकी धर्मपत्नी भानुमति ने भी संसार को विदा कह दिया ..

श्यामजी की इच्छा थी कि स्वतन्त्र होने के बाद ही उनकी अस्थियां भारत में लायी जाए. उनकी यह इच्छा 73 वर्ष तक अपूर्ण रही. अगस्त, 2003 में गुजरात के मुख्यमंत्री और वर्तमान भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी उनके अस्थिकलश लेकर भारत आये थे जिसको उस समय की मीडिया ने मात्र धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत को जिन्दा रखने के लिए प्रचारित नहीं किया था ...

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