इनपुट- शैलेश कुमार शुक्ला, लखनऊ
मैनपुरी लोकसभा की वो सीट जो मुलायम सिंह यादव के नाम से जान जाती है, जहां से मुलायम सिंह ने राजनीतिक अखाड़े के चुनावी दंगल कइयों को पटखनी दी। पिछले तीन दशक से ये सीट या तो मुलायम सिंह यादव के पास रही या उसके पास रही जिसे नेताजी मुलायम सिंह यादव ने चाहा। वैसे तो ये चुनाव सामाजवादी पार्टी अखिलेश यादव, डिंपल यादव के लिए प्रतिष्ठा का चुनाव है लेकिन इस चुनाव में समाजवादी पार्टी को एक नया दांव मिला है।
यूं कहे तो एक ट्रंप कार्ड मिला है वो हैं शिवपाल यादव। वैसे तो शिवापल यादव समाजवादी पार्टी की संस्थापक सदस्यों में से एक रहे। जबतक नेताजी सक्रिय राजनीति में रहे उनके दाएं हाथ रहे लेकिन 2017 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले शिवपाल यादव अखिलेश यादव से खफा हुए और अपनी राहें अलग कर ली। तबसे 4 चुनाव हुए लेकिन ना शिवपाल स्थिर हो ना अखिलेश ।
लेकिन 2012 के बाद से पहली बार किसी चुनाव में अखिलेश यादव और शिवपाल एक साथ नजऱ आ रहे हैं और सुर में सुर मिलाकर डिंपल को जिताने की बात कर रहे हैं। ऐसे में ये चुनाव शिवपाल के लिए लिटमस टेस्ट है क्योंकि हमने पिछले विधानसभा चुनावों में देखा है कि अखिलेश को शिवपाल पर उतना भरोसा नहीं जितना होना चाहिए।
इस बार शिवपाल यादव के लिए चुनौती दोहरी है। उनकी केवल प्रतिष्ठा ही नहीं बल्कि भविष्य भी दांव पर है। शिवपाल का भविष्य मैनपुरी के परिणाम पर ज्यादा निर्भर है। अगर डिंपल चुनाव जीत जाती हैं तब तो उम्मीद की जा सकती है कि अखिलेश शायद चाचा शिवपाल की सपा में सम्मानजनक वापसी करा ले। वहीं परिणाम कुछ अलग आए तब तो शिवपाल के साथ उनके लिए भी अपना राजनीतिक वजूद बचाना मुश्किल हो जाएगा।
मैनपुरी की हार से ये समाजवादी पार्टी और विरोधियों में ये संदेश जाएगा कि शिवपाल की अब लोगों के बीच पकड़ व पहुंच अब पहले जैसी नहीं बची और ऐसे में यह स्थिति सपा से ज्यादा व्यक्तिगत रूप से शिवपाल सिंह के अस्तित्व के लिए संकट खड़ी करेगी। वहीं दूसरी ओर भाजपा की अगर जीत होती है तो न सिर्फ सपा परिवार के एक और अभेध किले मैनपुरी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में पार्टी को पहली जीत दिलाने का श्रेय मिलेगा।