दिल्ली दंगा - उन्हें सिर्फ धर्म से मतलब था, फिर चाहे वो IB अधिकारी अंकित शर्मा हो, या श्रमिक दिलबर नेगी
यहां तक कि दिल्ली पुलिस कांस्टेबल रतनलाल को भी नहीं छोड़ा गया..
जब जब भारत के नेताओं द्वारा रची गई धर्मनिरपेक्षता की धज्जियां उड़ाने का आरोप कुछ उन्मदियों पर लगेगा तब तब उसमें मुख्य दोषी दिल्ली में हुए दंगों के उन दंगाइयों को बताया जाएगा जिन्होंने मजहबी चरमपंथ के नाम पर खौफ और मौत का ऐसा खेल खेला था जिसमें सामने वाले की जाति, उम्र , अवस्था या लिंग से कोई भी वास्ता नहीं था। उन्हें यदि मतलब था तो सामने वाले के धर्म से और विशेष तौर पर तब जब सामने वाला हिंदू हो।
ऐसा नहीं था कि हिंदुओं के अलावा उन्होंने बाकी सब को छोड़ दिया हो। शाहीन बाग में भले ही सिख समुदाय के एक विशिष्ट ने लंगर इत्यादि का आयोजन अपना घर बेच कर किया रह हो पर दिल्ली दंगे में सबसे ज्यादा प्रभावित हुए भजनपुरा क्षेत्र के एक सरदार जी का वीडियो बार-बार वायरल हो रहा था कि जल्दी से आर्मी बुलाओ अन्यथा यहां के उन्मादी किसी को नहीं छोड़ेंगे। मारते समय किसी का कद या पद बिल्कुल भी नहीं देखा गया ना ही किसी प्रकार की जाति।
सबसे ज्यादा नुकसान इसमें हिंदुओं के दलित वर्ग का हुआ है. जिनसे नकली एकता की बातें अक्सर भीम आर्मी जैसे नए नवेले समूह अपने खुद के फायदे व किसी बड़े के इशारे पर सोच समझ कर किया करते हैं। मजहबी उन्मादियों का उस समय ऐसा ही चरमपंथी रूप इसी प्रकार से पूरे दिल्ली में फैल जाता अगर दिल्ली पुलिस को देशभक्त व शांतिप स्थानीय जनता का साथ व समर्थन ना मिला होता तो.. आंखों में खून उतार चुके शाहरुख जैसे दंगाइयों को हर किसी ने देखा था , जिसने कैमरे के आगे पुलिस पर पिस्टल तान दी थी।
यह भी हर किसी ने देखा था कि पुलिस पर हमला किसने किया. इससे भी बताने की जरूरत नहीं कि दिल्ली पुलिस के बलिदानी रतनलाल को किसने मारा. असल मे तब सिर्फ हिंदू होने से मतलब और उसकी मौत तय कर दी जाती थी। इस बात का प्रमाण इसी बात से लिया जा सकता है कि हत्यारे दंगाइयों ने न ही उच्च पद पर आसीन आईबी के अधिकारी अंकित शर्मा को जिंदा छोड़ा और ना ही उत्तराखंड से कमाने आए व श्रमिक के रूप में काम कर रहे बेचारे दिलबर नेगी को। जो भी मिला उसका धर्म पूछ कर मारा गया ।
लेकिन उसके बाद भी वामपंथी मीडिया का 1 वर्ग फर्जी प्रोपोगंडा फैलाने में लगा हुआ है जिससे बेहद सतर्क रहने की जरूरत है। असल मे यह मीडिया का वही वर्ग है जो देश के सैनिकों और पुलिस बल की निंदा पर दुर्दांत आतंकियों की तरफदारी करते हुए उनका महिमामंडन करता है। वामपंथी मीडिया के इस वर्ग की जरूरत कुछ जातिवादी व साम्प्रदायिक नेताओं को तब होती है जब किसी हिंसक वा पशुओं से भी क्रूर आतंकी को वोट बैंक में बदलना होता है। इसलिए बेहदसतर्क रहने की जरूरत है जिससे आगे न कोई अंकित शर्मा बने और ना ही दिलबर नेगी। साथ ही मीडिया के उस वर्ग को यह बताना भी जरूरी है कि अब कोई अफजल गुरु उनके द्वारा चलाई गई झूठी खबरों से दशकों तक बिरयानी नहीं खा पाएगा..
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