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स्वतंत्र भारत मे अगर किसी को अभी भी गुलाम कहा जा सकता है तो वो है "पुलिस बल".. क्योंकि ये अभी भी चल रहा अंग्रेजो के बनाये सन 1861 के क़ानून से

देश के स्वतंत्रता दिवस पर सुरक्षा का सबसे ज्यादा जिम्मा उठाने वाला बल कितना है स्वतंत्र ?

Rahul Pandey
  • Aug 15 2020 11:33AM
पूरा देश आज भारत के स्वतंत्रता दिवस की खुशियों में डूबा हुआ है। जगह-जगह तिरंगा झंडा फहराया जा रहा है और वंदे मातरम जन गण मन के साथ भारत माता की जय के नारे हर तरफ सुनाई दे रहे हैं। सब यह जान रहे हैं कि 1947 में आज ही के दिन भारत को स्वतंत्रता मिली थी। इसी के साथ इसी प्रकार का हर्ष और उल्लास 26 जनवरी को भी दिखाई देता है जब हर कोई यह कहता है कि आज भारत को अपना खुद का संविधान मिल गया था और अंग्रेजों के कानून से मुक्ति मिली थी। आज ट्विटर पर एक ट्रेंड भी कर रहा है कि - " आजादी अभी अधूरी है" । यह ट्रेंड करने वाले अपने - अपने अलग - अलग विचारधारा के लोग हैं जिसमें से कुछ लोग राजनीतिक दृष्टिकोण भी रखते हैं परंतु "आज़ादी अभी अधूरी है" का आक्षेप अगर किसी के साथ सबसे फिट बैठता है तो वह है भारत का पुलिस बल जो आज भी ब्रिटिश कालीन कानून अर्थात 1861 के नियमों से बंधा हुआ है।

किसी कैदी तो दूर अगर किसी दुर्दांत आतंकी जिसे नर पिशाच भी कहा जा सकता है की मृत्यु यदि पुलिस चौकी या थाने में हो जाए तो उस चौकी थाने का एक-एक स्टाफ सस्पेंड अथवा बर्खास्त कर दिया जाता है। इतना ही नहीं उच्च स्तरीय जांच भी लगा दी जाती है और मामले को ऐसे दिखाया जाता है जैसे कोई बहुत बड़ी राष्ट्रीय आपदा घोषित हो गई हो। इतना ही नहीं डीजीपी और शासन स्तर से नियमों कानूनों में संशोधन भी शुरू हो जाता है और वो नए अधिनियम कानून उन्हीं पुलिसकर्मियों के ऊपर भार जैसे बनते हैं जो समाज की रक्षा करने के कर्तव्य के साथ-साथ कई अन्य कार्यों के बंधन से पहले से बंधे होते हैं। लेकिन उन्ही थाने उन्हीं चौकियों में पिछले कुछ समय से लगातार पुलिसकर्मियों ने आत्महत्या की। किसी ने खुद को गोली मारी और कोई फांसी का फंदा बनाकर झूल गया। महिला के सम्मान की दुहाई देने वाले इस देश में महिला पुलिस कर्मियों ने भी खुद को मौत के हवाले किया लेकिन शासन स्तर तक तो दूर जिला स्तर पर भी किस प्रकार की कार्यवाही हुई यहां हर किसी ने देखा है। यदि सच में संतोषजनक कार्यवाही हुई होती तो संभवत दूसरा कोई पुलिसकर्मी आत्महत्या न करता। फिर सवाल यह उठता है कि क्या एक पुलिस वाले का जीवन आतंकियों और अपराधियों से भी सस्ता है ? प्रमाण के रूप में सोशल मीडिया चेक की जा सकती है और यह जाना जा सकता है कि अभी मात्र माह भर पहले ज्यादा संवेदनाएं किसके लिए उमड़ी थी ? अपराधी विकास दुबे के लिए या बलिदानी डीएसपी देवेंद्र मिश्रा के लिए ? गौर यहां यह भी करने लायक है कि यही समाज पुलिस से अपराध मुक्त दुनिया की अपेक्षा करता है।

फिलहाल यहां बात जनता की हो रही है जो कि किसी पुलिस नियमावली में नहीं बंधी है लेकिन जब बात शासक - प्रशासक की हो तब वह उत्तरदाई जरूर होते हैं क्योंकि वह समाज के साथ-साथ उस पुलिस वाले के भी रक्षक है जिसने समाज की रक्षा के लिए वर्दी पहनी है। यह बात सिर्फ वर्दी वाले तक होती तो भी एक पुलिसकर्मी को रोबोट समझ कर छोड़ा जा सकता था लेकिन उस पुलिसकर्मी के पीछे उसके माता - पिता , उसके भाई  - बहन , उसके नाते - रिश्तेदार,  उसकी पत्नी - उसके बच्चे इत्यादि जुड़े रहते हैं.  उस पुलिसकर्मी के साथ होने वाला कोई भी अहित उसके पूरे परिवार को तबाह और बर्बाद कर देता है और इसका सबसे बेहतर उदाहरण यदि देखना है तो उत्तर प्रदेश प्रयागराज के धूमनगंज क्षेत्र में रह रहे 7 वर्ष से जेल काटते सब इंस्पेक्टर शैलेंद्र सिंह के तबाह व बिखरे परिवार को देखकर समझा जा सकता है जिसकी बच्चियों की फीस अगर आईपीएस अजय पाल शर्मा ना भरते तो अब तक संभव था कि प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री का "बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ " का नारा वहां झूठा साबित हो रहा होता..

कुल मिलाकर के यह वो बल बना दिया गया है जो कोई भी अधिकार अपने हक से नहीं मांग सकता है। भारत में समानता का अधिकार जरूर है जहां हर किसी को कुछ भी कहने या सुनने इत्यादि के बराबरी के हक मिले हुए हैं। इसी अधिकारों का दुरुपयोग करके भारत विरोधी नारे और वंदे मातरम जैसे शब्दों तक का विरोध होता है और देशद्रोही नारा लगाते एक देशद्रोही के आगे 100 पुलिस वाले लाचार खड़े सिर्फ मूकदर्शक बने देखते हैं क्योंकि वह सन 1861 के ऐसे नियम से बंधे हुए हैं जहां उन्हें सांस भी अगर लेनी है तो ऊपर से पूछ कर। उसका ट्रांसफर क्यों होता है , वह लाइन हाजिर क्यों होता है ये कई बार तो उसे खुद ही नहीं पता चलता . बस ऊपर से आदेश आता है और वह बिना एक शब्द पूछे उस आदेश का पालन करता है, जबकि एक कैदी को भी यह बताया जाता है कि उसकी जेल तो दूर उसका बैरक भी क्यों बदला गया . पुलिस विभाग में ज्यादा सवाल - जवाब करना भी अनुशासनहीनता मान ली जाएगी और बाकी ऐसी अनुशासनहीनता ना करें इसलिए सब को दिखा कर ऐसी कार्यवाही कर दी जाती है जो अपराधियों के बजाय पुलिस बल को ही डरा देती है।

प्रमोशन अथवा पदोन्नति तक के लिए जिस विभाग के लोग अपने अधिकारियों से और शासन से पूछने के बजाय अदालत अर्थात न्यायालय जाना पसंद करें वहां अनुशासन के नाम पर क्या-क्या होता होगा इसको समझना बेहद आसान है। यह बात सिर्फ राज्य के पुलिस बल की होती तब भी एक बार अनदेखा करने योग्य विषय था परंतु यही समस्या केंद्रीय बलों जैसे CRPF और BSF में भी है जहां पर डायरेक्ट भर्ती कई अधिकारी व जवान 10 - 10 वर्ष एक प्रमोशन के लिए तरस जाते हैं और सन 1861 एक्ट की नियमावली से लाभान्वित कुछ लोग सीढ़ियां चढ़ते चले जाते हैं। असल मे यह नियमावली हर पुलिस वाले के माथे की लकीर जैसी बन जाती है इसलिए अदालत से उसको अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाते और देश के साथ परिवार और परिवार के साथ ही उसकी एक नई चिंता जुड़ जाती है.. और वह चिंता है प्रमोशन की।

सुदर्शन न्यूज़ के प्रधान संपादक सुरेश चव्हाणके जी ने पिछली सरकार में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री रहे हंसराज अहीर जी से जब सन 1861 पुलिस एक्ट पर सवाल करते हुए पूछा था कि- " आज के भारत में ब्रिटिश कालीन कानून की क्या जरूरत है "? तब तत्कालीन गृहराज्यमंत्री ने जवाब दिया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चल रही भाजपा सरकार इस दिशा में कार्य कर रही है और जल्द ही इस में संशोधन किया जाएगा परंतु अभी तक ऐसा कोई भी सकारात्मक संदेश नहीं आया है जो ना सिर्फ राज्य पुलिस बल बल बल्कि केंद्रीय पुलिस बलों तक में सौतेला व्यवहार झेल रहे अधिकारियों व कर्मचारियों को राहत की खबर दे सके। यह बात और है कि पिछले कुछ समय से कई मंचों से लगातार भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी , भारत सरकार गृह मंत्री अमित शाह , उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ,  हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर आदि ने पुलिस बल की मुक्त कंठ से सराहना की और उन्हें देश की आंतरिक सुरक्षा की रीढ़ बताया..

अगर बात वेतनमान आदि की हो जाए तो 8 घंटे कुर्सी पर बैठने वाले कईयों को 24 घंटे दंगा, आतंकवाद व अपराध झेलने वालों से दोगुनी तनख्वाह ज्यादा मिलती है। बात सिर्फ प्रमोशन तक होती तो संभवत किसी पुलिस बल के मन में हीन भावना उतना ज्यादा घर ना करती, पर प्रमोशन के साथ-साथ वेतन की थी विषमताओं में सिंघम बनकर पुलिस बल में भर्ती हो कर आने वाले हर पुलिसकर्मी को बाद में शांत होकर खामोशी से अपनी नौकरी करने से ज्यादा अपनी नौकरी बचाने पर केंद्रित कर दिया है। 1861 पुलिस एक्ट में ऐसी क्या खास बात है यह आज तक कोई भी शासक जवाब नहीं दे पाया है जबकि कुछ ऐसे एक्ट भी थे जिन्हें बदलने व बचाने के लिए सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ चली गई है और विशेष अधिवेशन संसद का बुलाकर उसे बदल डाला। ऐसे में आतंकवाद व अपराध से लड़ने वाले इस बल को क्या प्राथमिकताओं की अंतिम श्रेणी रखा गया है ? इतनी आत्महत्याओं के बाद भी वो कौन सी नींद है जो अब तक नही टूट रही है ? सुदर्शन न्यूज़ राज्य पुलिस कर्मियों व केंद्रीय पुलिस कर्मियों की आवाज को लगातार उठाता रहेगा जब तक "सर्वे भवंतु सुखिनः" जैसा एक नियम पुलिस बल के लिए भी नहीं बना दिया जाता। मुद्दा यह है कि कुछ गिने-चुने अधिकारियों को ही नहीं बल्कि सभी पुलिसकर्मियों को सम्मान और स्वाभिमान से जीने का अधिकार मिले। हर बड़े राष्ट्रीय आयोजन व पर्व पर सुदर्शन न्यूज़ सत्ता से बार - बार ये सवाल जरूर करेगा कि-  "भारत का पुलिस बल 18 वीं शताब्दी से निकलकर 20 वीं शताब्दी में कब आएगा ? " उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है सच में - "आज़ादी अभी अधूरी है" ।

रिपोर्ट-

राहुल पांडेय
सुदर्शन न्यूज़ - मुख्यालय नोएडा
मोबाइल - 9598805228

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