इस खबर को लिखने से पहले यह जानना जरूरी है कि दिन-रात समाज की रक्षा के लिए किसी को मारने या खुद मर जाने वाले पुलिस बल को किसी भी प्रकार की कोई भी कानूनी सहायता सरकार द्वारा उपलब्ध नहीं करवाई जाती है और समाज की रक्षा का दायित्व अपने कंधों पर लेकर घूमने वाला पुलिस बल अपने हर दुर्गति का जिम्मेदार स्वयं होता है। यदि किसी अपराधी को गोली लगी और पलट कर पुलिस वाले ने भी गोली चलाई तो मीडिया से लेकर के खुद उस पुलिस वाले के विभाग में अपराधी का दवा ज्यादा मजबूत माना जाता है। रही बात मानवाधिकार की तो मानवाधिकार आयोग तो शायद पुलिस बल के लिए बना ही नहीं है। निश्चित रूप से अगर कानपुर में मरने वाले का नाम अपराधी विकास दुबे होता तो अब तक मानवाधिकार आयोग कई नोटिस जारी कर चुका होता।
फिलहाल बात मानवाधिकार से हटकर अगर खुद उसी पुलिस वाले की विभाग की की जाए तो उसका ही विभाग उसका साथ कितना देता है देखना है तो लगभग 7 साल से उत्तर प्रदेश की रायबरेली जेल में बंद सब इंस्पेक्टर शैलेंद्र सिंह से मिलकर देखा जा सकता है जिनका जीवन और उनके साथ उनके पूरे परिवार का जीवन और भविष्य सब कुछ तबाह हो चुका है। अपनी आत्मरक्षा में चली गई गोली जो अभी तक साबित भी नहीं हुई उसके चलते अब तक विगत 7 वर्षों से अपने परिवार में किसी की मौत तक में शामिल होने के लिए उसको जमानत भी नहीं मिली . उसको भीड़ के साथ पीट रहा नबी अहमद लगभग आधे दर्शन मुकदमों में नामजद था । उसकी पिटाई का वीडियो भी मौजूद है लेकिन कमी सिर्फ यह है कि वह एक पुलिस वाला था उसकी कहीं नहीं सुनवाई हुई और उसके साथ साथ उसका पूरा परिवार उस हालत में पहुंच गया जो किसी भी पुलिस वाले को गोली चलाने या ना चलाने के निर्णय के समय याद जरूर आता होगा ..
वह शासन अखिलेश यादव क्या हुआ करता था और सबसे कद्दावर हस्ती रखते थे आजम खान । मृतक का नाम नबी अहमद था तो आप खुद सोच सकते हैं कि अपने नाम में सिंह लगाने वाले शैलेंद्र का क्या हाल हुआ रहा होगा । कानपुर में जब पुलिस वाले रात को दबिश में जा रहे थे तो बलिदान हुए उन 800 पुलिस वालों के दिमाग में एक बार सब इंस्पेक्टर शैलेंद्र सिंह जरूर गूंज गया रहा होगा। यदि पुलिस बल अपनी आत्मरक्षा में पलट कर गोलियां चलाता तो यकीनन अब तक पुलिस के लिए आंसू बहा रहा मीडिया का एक खास वर्ग और विपक्ष के कुछ नेता पुलिस के हाथे मरे अपराधियों को मासूम गांव वाले और पुलिस वालों को हत्यारे घोषित कर चुके होते। यदि आधे दर्जन मुकदमों में नामजद नबी अहमद अखिलेश यादव के समय में मुआवजा पा सकता है तो क्या गारंटी छतों से पुलिस पर गोलियां बरसा रहे कानपुर के हत्यारे कितने मुकदमे में वांछित या नामजद मिलते ?
इस पूरी घटना पर राजनैतिक क्षेत्र में जिस पार्टी ने सबसे ज्यादा कोहराम मचाया वह समाजवादी पार्टी। अखिलेश यादव इस पूरे विरोध का नेतृत्व कर रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि उन्हें पुलिस वाले भी शहीद दिख रहे हैं जो अच्छी बात फिलहाल के लिए जरूर है लेकिन यदि उनसे सब इंस्पेक्टर शैलेंद्र सिंह की दुर्गति का कारण पूछा जाए तो संभवत उनके पास कोई जवाब ना मिले । ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या पुलिस भी अब वोट बटोरने का साधन मात्र है। यद्यपि अखिलेश यादव से एक तरफा शिकायत नहीं की जा सकती क्योंकि योगी सरकार के लगभग 3 साल में उस पुलिस अधिकारी शैलेंद्र सिंह के की कोई सुध नहीं ली गई और उसके लिए स्थितियां ज्यों की त्यों बनी रही.
पुलिस की नौकरी बचपन में किसी बालक को सबसे ज्यादा आकर्षित करती है . वो सोचता है कि बड़ा हो कर वर्दी पहनेगा और अपराधियों को पस्त कर देगा . इतनी पवित्र भावना में उसको जरा सा भी एहसास नहीं होता कि ऊपर उसका कोई अधिकारी होता है और बीच में एक राजनेता जो कई बार पुलिस का उपयोग अपने स्वार्थ और वोट बैंक की फसल को उपजाऊ बनाने के लिए करता है .. पुलिस का सही काम भी गलत किस हिसाब से बनाना है उस राजनेता को बेहतर ढंग से पता होता है और जनता भी अक्सर वही समझती है जो उसको समझा दिया जाता है क्योकि मीडिया के एक वर्ग को न जाने कौन सा आनंद आता है पुलिस के खिलाफ लिखने और बोलने में ..
सँभवतः ऐसा भी नहीं नहीं है कि कानपुर के बलिदानी स्वयं को बचा न सकते थे. उनके पास रिवॉल्वर थी , हथियार थे लेकिन अफसोस वह चला न सकते थे क्योंकि कानून ने उनके हाथ बांधे हुए थे. अगर वह रिवॉल्वर से गोली चलाते तो उनकी स्थिति उत्तर प्रदेश की इलाहाबाद पुलिस के सब इंस्पेक्टर शैलेन्द्र सिंह जैसी हो जाती जो पिछले 3 साल से जेल में बंद है हैं और मौत से बदतर जिंदगी काट रहे हैं. उनका दोष सिर्फ इतना था कि उन्होंने अपनी आत्मरक्षा में रिवाल्वर लहरा दी थी और अपनी जान बचा ली थी .. आज से लगभग 7 साल पहले शैलेन्द्र सिंह पर भी लगभग आधे दर्जन मुकदमों में नामजद एक अपराधी नबी अहमद ने हमला किया था जिसमे खुद को बचा लेना ही सब इंस्पेक्टर शैलेन्द्र सिंह का गुनाह मान लिया गया था और नबी की मौत के साथ शैलेन्द्र सिंह की जिन्दगी बन गयी थी राजनेताओं का खिलौना जिस से उन्होंने कई महीनो तक खेला ..
राष्ट्र के रक्षक सेना के जवानो के बलिदान पर कई बार चुप रहने वाले और प्रयागराज से सैकड़ो किलोमीटर दूर बैठे लालू प्रसाद यादव तक आधे दर्जन मुकदमो में वांछित नबी अहमद की मौत पर बयान जारी कर दिए थे . राजनीति की यही आंधी एक सब इंस्पेक्टर शैलेन्द्र को तिनके की तरह उड़ा ले गयी जिसके बाद उन्हें जेल भेजा और आज तक जमानत भी न हो पाई है जबकि उनका परिवार, उनकी पत्नी, उनके बच्चे भुखमरी की कगार पर आ चुके हैं. जोधपुर में महेंद्र चौधरी ने आत्मरक्षा में भी गोली न चलाई तो उनको मार दिया गया. ये है पुलिस के जवानों की जिंदगी कि वह दूसरों की जान तो बचा सकता है लेकिन अपनी जान नहीं बचा सकता है.
अगर वह अपनी रक्षा के लिए उसको मिली रिवॉल्वर या बंदूक से गोली चलाता है तो उसको इलाहाबाद पुलिस का सब इंस्पेक्टर शैलेन्द्र सिंह बनाकर जेल में डाल दिया जाता है और उसको अंतहीन प्रताड़ना दी जाती हैं लेकिन अगर वह गोली नहीं चलाता है तो उसको कानपुर के वीरों की तरह मार दिया जाता है. वीरों का बलिदान के बाद भले ही अब गोली मार देने की मांग उठ रही हो पर अगर वहां कुछ अपराधी मरे होते तो शायद अब तक वो आठों पुलिसकर्मी शैलेन्द्र सिंह की तरह जेल में मौत से भी बदतर जिंदगी जीते. समझ नहीं आता कब पुलिस वालों को उनकी रक्षा का अधिकार मिलेगा? कब लोग पुलिस वालों के दर्द को समझेंगे. एक बार पुनः कर्तव्यपरायण पुलिसकर्मियों को सैल्यूट करते हुए सुदर्शन परिवार बलिदान हुए आठों कानपुर के वीरों को श्रद्धांजलि और बर्बाद हुए सब इंस्पेक्टर शैलेन्द्र सिंह व उनके परिवार को सहानभूति समर्पित करता है और शासन के साथ मानवाधिकार और पुलिस विरोधी मीडिया से सवाल करता है कि ड्यूटी देने का वो कौन सा तरीका है जिसमे न दंगाइयो, आतंकियो व अपराधियो को कोई नुकसान हो और न ही जनता को.
रिपोर्ट-
राहुल पांडेय
सुदर्शन न्यूज़
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