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24 मई - "पता है कि मुझे फाँसी मिलेगी या काला पानी.. और इसमें मैं फाँसी चुन रहा"..बलिदानी करतार सिंह सराभा जयंती. उम्र थी मात्र 19 वर्ष

वीर भगत सिंह के अनन्य साथी भगवतीचरण वोहरा ने एक बार कहा था कि 'खुराक जिस पर आज़ादी का पौधा पलता है वह बलिदानियों का खून होती है..

Rahul Pandey
  • May 24 2021 8:08AM
मैें जानता हूं मैंने जिन बातों को कबूल किया है, उनके दो ही नतीजे हो सकते हैं - कालापानी या फांसी।

 इन दोनों में मैं फांसी को ही तरजीह दूंगा क्योंकि उसके बाद फिर नया शरीर पाकर मैं अपने देश की सेवा कर सकूंगा।'' ये शब्द उस महान क्रांतिकारी के हैं जिसने मात्र 19 वर्ष की आयु में फांसी के फंदे को सहर्ष हंसते-हंसते गले लगाया। 

जी हां, क्रांतिकारी आदर्शवाद को एक नई दिशा देने वाला वह अग्रदूत है -करतार सिंह सराभा। अंग्रेजी हुकूमत ने 16 नवम्बर 1915 को इस वीर बालक को लाहौर सैंट्रल जेल में फांसी के तख्ते पर लटका दिया। 

आखिर दोष क्या था -अपने मुल्क के प्रति वफादारी और गद्दार अंग्रेजों को देश से बाहर खदेड़ने की इच्छाशक्ति।

भगतसिंह के अनन्य साथी भगवतीचरण वोहरा ने एक बार कहा था कि 'खुराक जिस पर आज़ादी का पौधा पलता है वह बलिदानियों का खून होती है।'

 देश को अंग्रेज़ी ग़ुलामी से आज़ाद करवाने में बहुत से शहीदों ने क़ुर्बानी दी है। एक ऐसे ही बहादुर सपूत थे गदर आन्दोलन के दौरान बेहद कम उम्र में बलिदान देने वाले करतार सिंह सराभा। 

आपको ज्ञात हो शहीद-ए-आज़म भगतसिंह इन्हें अपना आदर्श मानते थे और इनकी फोटो सदैव अपने पास रखते थे। 

16 नवम्बर 1915 को मात्र उन्नीस वर्ष की आयु में शहादत पाने वाले करतार सिंह सराभा का जन्म लुधियाना जिले के सराभा गाँव में सन् 1896 में हुआ था।

 माता-पिता का साया बचपन में ही इनके सिर से उठ जाने पर दादा जी ने इनका पालन-पोषण किया। लुधियाना से मैट्रिक पास करने के बाद ये इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए सान फ्रांसिस्को, अमेरिका चले गये।

 1907 के बाद से काफी भारतीय विशेषकर पंजाबी लोग अमेरिका और कनाडा में मज़दूरी के लिए जा कर बस चुके थे।

इन सभी को वहाँ आये दिन ज़ि‍ल्लत और अपमान का सामना करना पड़ता था। अमेरिकी गोरे इन्हें काले और गन्दे लोग कहकर सम्बोधित करते थे। 

इनसे अपमानजनक सवाल-जवाब किए जाते और खिल्ली उड़ाई जाती थी कि 33 करोड़ भारतीय लोगों को 4-5 लाख गोरों ने गुलाम बना रखा है! 

जब इन भारतीयों से पूछा जाता कि तुम्हारा झण्डा कौन-सा है तो वे यूनियन जैक की तरफ इशारा करते, इस पर अमेरिकी गोरे ठहाका मारते हुए कहते कि ये तो अंग्रेज़ों का झण्डा है तुम्हारा कैसे हो गया। 

प्रवासी भारतीयों को अब खोयी हुई आज़ादी की क़ीमत समझ में आयी। देश को आज़ाद कराने की कसमसाहट पैदा हुई और मीटिंगों के दौर चले।

लाला हरदयाल, सोहन सिंह भकना आदि कई देशभक्तों ने मिलकर देश को आज़ाद कराने के लिए पार्टी की स्थापना की।

 1857 के सशस्त्र विद्रोह के बाद नये सिरे से सशस्त्र बग़ावत की ज़रूरत महसूस की गयी तथा इसके लिए प्रयास शुरू हुए। इस पार्टी को गदर पार्टी के नाम से जाना गया क्योंकि इसके द्वारा विभिन्न भाषाओं में 'गदर' नामक अख़बार निकाला जाता था।

 करतार सिंह सराभा भी अमेरिका में आन्दोलन से जुड़ गये और इन्होंने बेहद छोटी उम्र में ही आश्चर्यजनक सांगठनिक क्षमता का परिचय दिया। इसलिए गदर के पंजाबी संस्करण के सम्पादन का ज़ि‍म्मा करतार सिंह सराभा को सौंपा गया। 

अब करतार सिंह सराभा के जीवन का मकसद ही क्रान्ति करना था। प्रेस चलाते वक्त वे अक्सर ही यह गीत गुनगुनाया करते थे, "सेवा देश की जिन्दड़िए बड़ी औखी, गल्लाँ करनीआँ ढेर सुखल्लीयाँ ने!"

सन् 1914-15 में कामागाटमारू और अन्य समुद्री जहाजों से गदर आन्दोलनकारी भारत में सशस्त्र विद्रोह करने के मक़सद से पहुँचे। लेकिन किरपाल सिंह की गद्दारी से विद्रोह से एक दिन पहले ही अंग्रेज़ों को भनक लग गयी और उन्होंने गदर के वीर सपूतों की धरपकड़ शुरू कर दी।

करतार सिंह सराभा समेत अनेक गदरी गिरफ़्तार कर लिये गये। अपने मुकदमे में 19 वर्षीय करतार सिंह सराभा ने रत्ती भर भी डरे बिना छाती ठोंककर कहा कि उन्होने साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ विद्रोह किया है और ऐसी ज्वाला भड़कायी है जो उनके मरने के बाद भी नहीं बुझेगी। 

अंग्रेज़ जज दाँतों तले कलम दबाये बस देखता रह गया था। करतार सिंह के दादा इन्हें अंग्रेज़ों द्वारा इतनी कम उम्र में फाँसी की सज़ा दिये जाने पर काफी दुखी थे, जब वे जेल में इनसे मिले तो इन्होंने अपने दादा को समझाया कि मैं खाट में बूढ़ा होकर सड़-सड़कर नहीं मरना चाहता, यह मौत उस मौत से हज़ार गुना अच्छी है।

गदर आन्दोलन के दौरान 200 से ज़्यादा लोगों ने कुबार्नी दी तथा बहुतों को अंग्रेजी हुकूमत ने जेलों में सड़ाया। 16 नवम्बर को करतार सिंह सराभा, महाराष्ट्र के गणेश विष्णु पिंगले और अन्य पाँच गदर आन्दोलनकारियों को फांसी दे दी गयी। 

नौजवान भारत सभा के संस्थापक शहीद भगतसिंह करतार सिंह सराभा को अपना प्रेरणास्त्रेत, गुरू, साथी और भाई मानते थे। उस समय के प्रताप, किरती जैसे कई राष्ट्रीय समाचार पत्रों में भगतसिंह के कुछ लेख करतार सिंह के नाम से भी प्रकाशित हुए थे।

करतार सिंह सराभा और उन जैसे न जाने कितने नौजवान देश की आज़ादी के लिए हँसते-हँसते फांसी के फन्दों पर झूल गये। अंग्रेजों को तो जनबल से डरकर भागना पड़ा किन्तु देश से भागते समय वे सत्ता की बागडोर अपने देसी भाई-बन्धुओं को सौंप गये।

इन देसी हुक्मरानों ने जनता को जी भरकर निचोड़ा है और आज़ादी के बाद मिले तमाम हक-अधिकार लगातार या तो छीने जाते रहे हैं या बस काग़जों की शोभा बढ़ा रहे हैं। 

68 वर्षों की आधी-अधूरी आज़ादी चीख़-चीख़कर बता रही है कि यह शहीदों के सपनों की आज़ादी कत्तई नहीं है। 

आज सुई से लेकर जहाज तक बनाने वाले मज़दूर गुलामों की तरह हाड-तोड़ मेहनत करने के बाद केवल दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से जुटा पाते हैं; खेतों-खलिहानों में खटने वाले गरीब किसान और खेतीहर मज़दूर कर्ज में डूबकर बद से बदतर ज़ि‍न्दगी जीने को मजबूर हैं; लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ जाता है फिर भी देश की बहुत बड़ी आबादी कुपोषण का शिकार है।

भारत के अंदर ही पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगते हैं , रोहिंग्या जैसे विदेशी आक्रांताओं को बसाने का प्रयास होते है।,

 अपने ही देश मे कश्मीरी हिन्दू शरणार्थी हो जाते हैं , आतंकियों व देश के शत्रुओं के लिए आधी रात को अदालतें खुलवाई जाती हैं, भारतीय फौज पर पत्थर मारने को अपना अधिकार बताया जाता है .. 

देश की इस तस्वीर के उलट शहीदों ने समतामूलक, शोषणविहीन समाज का सपना देखा था जो अभी भी अधूरा है। आज आज़ादी के उस अमर योद्धा करतार सिंह सराभा को उनके जन्म दिवस पर बारम्बार नमन करते हुए उनकी यश गाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प सुदर्शन न्यूज दोहराता है .. 

करतार सिंह सराभा अमर रहें ..

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