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24 अगस्त- जयंती हुतात्मा “राजगुरु” जी. ब्रिटिश भूमि तक को आज भी याद है इनका पराक्रम.. भुलाए गए तो केवल भारत के ही कथित अहिंसको द्वारा

वीर बलिदानियों की फांसी का उस समय के आज़ादी के कथित ठेकेदारों ने नहीं किया था विरोध ।

Rahul Pandey
  • Aug 24 2020 7:17AM

जब भी भारत की आज़ादी की बात आएगी तब भले ही बिलों से तमाम जाने और अनजाने ठेकेदार निकल कर बाहर आ जाएँ लेकिन आज की स्वतंत्रता केवल और केवल उन परमबलिदानियों की देन है जिन्होंने अपनी उग्र जवानी में केवल और केवल अपनी मातृभूमि से प्रेम किया और अंत में अपने प्राणहव्य को देश की आजादी के हवन कुंड में डाल दिया.

 उन वीरों के नाम को चाटुकारों ने भले ही कितना भी भुलाने का प्रयास किया रहा हो पर जिनका रक्त भारत भूमि में समा गया हो उनके रक्त की खुशबू अनंत काल तक बनी रहेगी भले ही कोई किसी भी हद तक उन वीरों के विरुद्ध साजिश रचे .. उन्हें लाखों ज्ञात और अज्ञात वीर बलिदानियों में से एक राजगुरु जी का आज पावन जन्म दिवस है .

सामान्यतः लोग धन, पद या प्रतिष्ठा प्राप्ति के लिए एक-दूसरे से होड़ करते हैं; पर क्रांतिवीर राजगुरु सदा इस होड़ में रहते थे कि किसी भी खतरनाक काम का मौका भगतसिंह से पहले उन्हें मिलना चाहिए। श्री हरि नारायण और श्रीमती पार्वतीबाई के पुत्र शिवराम हरि राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को पुणे के पास खेड़ा (वर्तमान राजगुरु नगर) में हुआ था। उनके एक पूर्वज पंडित कचेश्वर को छत्रपति शिवाजी के प्रपौत्र साहू जी ने राजगुरु का पद दिया था। तब से इस परिवार में यह नाम लगने लगा। छह वर्ष की अवस्था में राजगुरु के पिताजी का देहांत हो गया।

 पढ़ाई की बजाय खेलकूद में अधिक रुचि लेने से उनके भाई नाराज हो गये। इस पर राजगुरु ने घर छोड़ दिया और कई दिन इधर-उधर घूमते हुए काशी आकर संस्कृत पढ़ने लगे। भोजन और आवास के बदले उन्हें अपने अध्यापक के घरेलू काम करने पड़ते थे। एक दिन उस अध्यापक से भी झगड़ा हो गया और पढ़ाई छोड़कर वे एक प्राथमिक शाला में व्यायाम सिखाने लगे।

यहां उनका परिचय स्वदेश साप्ताहिक, गोरखपुर के सह सम्पादक मुनीश अवस्थी से हुआ। कुछ ही समय में वे क्रांतिकारी दल के विश्वस्त सदस्य बन गये। जब दल की ओर से दिल्ली में एक व्यक्ति को मारने का निश्चय हुआ, तो इस काम में राजगुरु को भी लगाया गया। राजगुरु इसके लिए इतने उतावले थे कि उन्होंने रात के अंधेरे में किसी और व्यक्ति को ही मार दिया। राजगुरु मस्त स्वभाव के युवक थे। उन्हें सोने का बहुत शौक था। एक बार उन्हें एक अभियान के लिए कानपुर के छात्रावास में 15 दिन रुकना पड़ा। वे 15 दिन उन्होंने रजाई में सोकर ही गुजारे।

राजगुरु को यह मलाल था कि भगतसिंह बहुत सुंदर है, जबकि उनका अपना रंग सांवला है। इसलिए वह हर सुंदर वस्तु से प्यार करते थे। यहां तक कि सांडर्स को मारने के बाद जब सब कमरे पर आये, तो राजगुरु ने सांडर्स की सुंदरता की प्रशंसा की। भगतसिंह से आगे निकलने की होड़ में राजगुरु ने सबसे पहले सांडर्स पर गोली चलाई थी। लाहौर से निकलतेे समय सूटधारी अफसर बने भगतसिंह के साथ हाथ में बक्सा और सिर पर होलडाल लेकर नौकर के वेष में राजगुरु ही चले थे। 

इसके बाद वे महाराष्ट्र आ गये। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने अपने एक कार्यकर्ता के फार्म हाउस पर उनके रहने की व्यवस्था की। जब दिल्ली की असेम्बली में बम फेकने का निश्चय हुआ, तो राजगुरु ने चंद्रशेखर आजाद से आग्रह किया कि भगतसिंह के साथ उसे भेजा जाए, पर उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली।

इससे वे वापस पुणे आ गये। राजगुरु स्वभाव से कुछ वाचाल थे। पुणे में उन्होंने कई लोगों से सांडर्स वध की चर्चा कर दी। उनके पास कुछ शस्त्र भी थे। क्रांति समर्थक एक सम्पादक की शवयात्रा में उन्होंने उत्साह में आकर कुछ नारे भी लगा दिये। इससे वे गुप्तचरों की निगाह में आ गये। पुणे में उन्होंने एक अंग्रेज अधिकारी को मारने का प्रयास किया; पर दूरी के कारण सफलता नहीं मिली। इसके अगले ही दिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा सांडर्स वध का मुकदमा चलाकर मृत्यु दंड घोषित किया गया। 23 मार्च, 1931 को भगतसिंह और सुखदेव के साथ वे भी फांसी पर चढ़ गये।

बलिदान होते हुए उन्हें यह संतोष रहा कि बलिदान प्रतिस्पर्धा में वे भगतसिंह से पीछे नहीं रहे। आज बलिदान की उस महानतम पराकाष्ठा , उस दिव्यात्मा और उस वीरों के वीर स्वतंत्रता के असली हकदार बलिदानी राजगुरु को सुदर्शन परिवार का बारम्बार नमन , वंदन और अभिनन्दन है और साथ ही आज़ादी के ऐसे वीरों की अमरगाथा को सदा जनमानस के सामने लाते रहने का संकल्प भी दोहराता है . वीर बलिदानी राजगुरु जी अमर रहें

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