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10 अप्रैल- परमवीर मेजर धन सिंह थापा जी जयंती. 1962 युद्ध में सैकड़ों चीनी सैनिकों का वध कर के, फिर उनकी जेल तोड़ सकुशल वापस आये थे

शौर्य की इस गाथा पर भी पर्दा डाल दिया वामपंथियो ने.

Rahul Pandey
  • Apr 10 2021 5:22PM

आज ही के पावन दिन अर्थात 10 अप्रैल 1928 को हिमाचल प्रदेश के शिमला में एक साधारण परिवार में जन्मे धनसिंह थापा जी ने अपनी देश सेवा की भावना से 1949 में एक कमीशंड अधिकारी के रूप में सेना में शामिल हुए। जब 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण की तैयारी की.

तब भारत इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं था न ही राज‍नयिकों की मन:स्थिति वैसी थी। मेजर धन सिंह थापा परमवीर चक्र से सम्मानित नेपाली मूल के भारतीय थे। उन्हें यह सम्मान सन १९६२ के चीन से हुए युद्ध में अद्भुत पराक्रम से लड़ने के उपरान्त मिला था . 

1962 के भारत-चीन युद्ध में जिन चार भारतीय बहादुरों को परमवीर चक्र प्रदान किया गया, उनमें से केवल एक वीर उस युद्ध को झेलकर जीवित रहा, उस वीर का नाम धन सिंह थापा था जो 1/8 गोरखा राइफल्स से, बतौर मेजर इस लड़ाई में शामिल हुआ था।

धन सिंह थापा भले ही चीन की बर्बर सेना का सामना करने के बाद भी जीवित रहे, लेकिन युद्ध के बाद चीन के पास बन्दी के रूप में जो यातना उन्होंने झेली, उसकी स्मृति भर भी थरथरा देने वाली है। धन सिंह थापा इस युद्ध में पान गौंग त्सो (झील) के तट पर सिरी जाप मोर्चे पर तैनात थे.

जहाँ उनके पराक्रम ने उन्हें परमवीर चक्र के सम्मान का अधिकारी बनाया। शिमला के धनसिंह थापा ने लद्दाख में मोर्चा संभालते हुए सैकड़ों चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। मेजर धन सिंह थापा अगस्त 1949 में भारतीय सेना के आठवीं गोरखा राइफल्स में कमीशन अधिकारी के रूप में शामिल हुए थे। 

थापा ने 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान लद्दाख में चीन की सेना का बहादुरी से सामना किया था। लद्दाख के उत्तरी सीमा पर पांगोंग झील के पास सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण चुशूल हवाई पट्टी को चीनी सेना से बचाने के लिए सिरिजाप घाटी में गोरखा राइफल्स की कमान संभाली।

12 अक्टूबर 1962 को सिरिजाप वन चौकी में प्लाटून सी में मेजर धन सिंह थापा ने दुश्मनों से युद्ध लड़ा। 20 अक्टूबर 1962 को सुबह छह बजे एक बार फिर पूरी ताकत से चीन के सैनिकों ने सिरिजाप चौकी पर हमला कर दिया। भारतीय चौकी तबाह हो गई और कई जवान बलिदान हो गए। 

इस चौकी पर चीन के सैनिकों का नियंत्रण हो गया और उन्हें तीन साथियों के साथ युद्ध बंदी बना लिया गया।गोरखा परंपरा का निर्वहन करते हुए धन सिंह थापा ने चीनी युद्धबंदी शिविर से चीनी चौकसी को धता हुए, वहां से भागने में सफल हुए ।  यद्दपि ये कार्य इतना आसान नहीं था फिर भी इसको सम्भव कर दिया  भारत की सेना के इन परमवीर ने.

कई दिनों पहाडियों में भटकते रहने के बाद थापा भारतीय सीमा क्षेत्र में प्रविष्ट हुए और भारतीय सैनिक चौकी तक पहुंचे , घायल अवाष्ठ में होने के बावजूद बुलंद हौंसले ने अन्य भारतीय जवानो में भी नव उत्साह का संचार कर दिया । इस घटना ने ना केवल चीनी पक्ष का मनोबल गिराया वरन भारतीय सैनिको की निर्भीकता से दुनियाभर को सन्देश दिया।


अपने दुश्मनों से वीरता से लड़ने के कारण भारतीय सरकार ने सेना का सर्वोच्च सम्मान "परमवीर चक्र " देकर धन सिंह थापा को सम्मानित किया . इस घटना के बाद भी धन सिंह थापा ने भारतीय सेना को अपनी सेवाए दी और सेना से लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से रिटायर हुए ।  वामपंथी तत्वों का चीन सदा से आका रहा है इसलिए उन्होंने चीन से लड़े इस योद्धा की गाथा को अपनी पुस्तको में प्रमुखता न के  बराबर दी. 

6 सितम्बर 2005 को इस वीर गोरखा सपूत ने दुनिया को अलविदा कह दिया. आज वीरता के उस महान मूर्ति को उनके जन्म दिवस पर सुदर्शन परिवार बारम्बार नमन और वंदन करते हुए उनकी गौरवगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेता है . मेजर धन सिंह थापा जी अमर रहें .. 

जय हिन्द की सेना . भारत माता की जय 

 

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