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50 साल बाद लॉकडाउन में कैसे सर्वश्रेष्ठ सांसद की कुत्ते वाली कहानी सच हो गई, जिस कहानी पर प्रधानमंत्री मोदी सहित पूरा संसद हंसा भी था और फिर रोया भी था।

50 साल बाद लॉकडाउन में कैसे सर्वश्रेष्ठ सांसद की कुत्ते वाली कहानी सच हो गई, जिस कहानी पर प्रधानमंत्री मोदी सहित पूरा संसद हंसा भी था और फिर रोया भी था।

Mukesh Kumar
  • Jun 8 2020 4:18AM

50 साल बाद लॉकडाउन में कैसे सर्वश्रेष्ठ सांसद की कुत्ते वाली कहानी सच हो गई, जिस कहानी पर प्रधानमंत्री मोदी सहित पूरा संसद हंसा भी था और फिर रोया भी था।
इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन की ओर जाती सड़क पर दौड़ती कार जब उसी सड़क के किनारे की लाल बहुवाही मिट्टी पर पैदल चलते युवको को सांय से पार कर जाती है तो वह उस कार को देखता ही रहा जाता है। उस कार को ही नहीं बल्कि कार में बैठी मेम साहब और मेम साहब की गोद में बैठे कुत्ते को भी वह निहारता रह जाता है। वह कुत्ता जो कार की खिड़की से अपनी गर्दन बाहर किए सुबह की ताजा हवा का आनंद ले रहा था। कुत्ते की लपलपाती चीभ और उसकी आंखों को वह युवक तब तक देखता रह जाता है जब तक वह कार उसकी आंखों से दूर जा कर ओझल नहीं हो जाती है। एसी कार में बैठी मेम साहब की गोद में बैठे कुत्ते को देख कर उस युवक को कुत्ते की किस्मत से जलन होने लगती है। रोजी-रोजगार की जुगाड़ में गांव से दिल्ली आए युवक को अपने आप पर तरस आ जाता है। उसे लगता है कि कुत्ते ने अपनी लपलपाती जीभ से उसे चिढ़ाया है उसे उसकी औकात बताई है उसे कहा है कि ऐ गरीब मजदूर आदमी देख अपनी औकात तुम्हारे पर खाने को रोटी नहीं चलने को साइकल भी नहीं और हम एसी कार में घुमते हैं केक और बिस्कुट खाते हैं। युवक कुत्ते से भी बदतर अपनी जिंदगी को मान निराशा में डूब जाता है।....यह किसी कहानी का प्लॉट नहीं बल्कि 2018 में सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार पाने वाले हुकुमदेव नारायण यादव की हकीकत है। जिसका वर्णन उन्होंने बहुत ही चुटीले अंदाज में 2014 में लोकसभा में अपने भाषण के दौरान किया था अपने भाषण में उन्होंने देश की गरीबी के लिए कांग्रेस के 70 साल के शासन को जिम्मेदार ठहराते हुए उन पर जबर्दस्त हमला बोला था। उन्होंने कहा था कि  70 साल पहले भी कांग्रेस गरीबी हटाओं का नारा देती थी और 70 साल बाद भी यही नारा देती है। वो 70 का दशक था देश में इंदिरा गांधी की सरकार थी युवक हुकुमदेव नारायण यादव अपनी उम्र के तीसरे दशक में बमुश्किल पहुंचे वाले थे। आज जब वो 6 बार सांसद और अटल सरकार में मंत्री रहने के बाद राजनीति से रिटायर हो चुके है तब भी मजदूरों और गरीबों के लिए हालात जस के तस बने हुए हैं। हां कुत्तों की तरक्की जरूर हो गई है वो पहले सिर्फ गाड़ियों में घूमते थे लेकिन अब प्राइवेट जेट तक पहुंच गए हैं। 
लॉकडाउन के दौरान अपने मालिको से अलग रह गए उनके पालतु जानवरों को मिलवाने के लिए अब प्राइवेट जेट की सेवा ली जा रही है। साइबर सेक्युरिटी एक्सपर्ट और इंतरप्रन्योर दीपिका सिंह की पहल पर जेट सेवा शुरू की जा रही है। 6 सीटों वाले इस जेट में एक सीट की कीमत एक लाख साठ हजार है जो यदि फुल नहीं हुई तो प्रति सीट कीमत बढ़ भी सकती है। पैट लवर की दृष्टि से तो यह पहल अच्छी दिखती है लेकिन लॉकडाउन के ही दौरान जिस देश में मजदूरों को अपने घर जाने के लिए सैकड़ों किलोमीटर का रास्ता पैदल नापना पर रहा हो। जहां 15 साल की बेटी को अपने बीमार बाप को घर लाने के लिए 1200 किलो मीटर साइकिल चलानी पड़़ती हो, जहां मजदूर पुलिस से बचते हुए रेल की पटरियों के रास्ते पैदल चलते-चलते मौत की नींद सो जाते हों, जहां घर की देहरी पर पहुंच कर गरीबी दम तोड़ देती हो वहां पैट यानि पालतु जानवरों को प्राइवेट जेट से मालिकों तक पहुंचाने की पहल, गरीबी के मुंह पर अमीरा का तमाचा जैसा लगता है।
 ये गरीब मजदूर जेठ की दोपहरी हो या हो पूस की रात....सावन की बरसात हो या हो पतझर बेजार...हर मौसम में इन्होंने पसीना ही बहाया है...सींचा है जमीन को इससे....जमीन पर इमारत उगाइ है। शहर के शॉपिंग मॉल से गांव के खेत तक सड़कों का जाल बिछाया हैं। ये रेल की पटरियां भी इन्होंने ही बिछाइ है...धरती के पेट में घुस कर मुंह से निकलने वाली मेट्रो की सुरंगें भी इन्होंने ही खोदी है। इस जगमगाते शहरों तक बिजली के तार पहुंचाने के लिए इसके झटके भी मजदूरांे ने ही सहे हैं। शहर की प्यास बुझाने के लिए नहरों का मुंह भी शहर की ओर इन्होंने ही मोड़ा है। ये बच्चों के स्कूल बड़ों के लिए यूनिवर्सिटी, बीमार आदमी तो आदमी पशुओं के लिए भी अस्पताल बनाए, सभी को बनाने में इनका पसीना बहा है। शहर को बनाने के लिए मजदूरों अपना घर छोड़ा है अपनी मिट्टी अपना खेत अपने गांव की ताजा हवा सब कुछ छोड़ा है। वहीं वापस जाने के लिए उन्हें अब अपना शरीर भी छोड़ना पर रहा है। लॉकडाउन के दौरान घर जाने की जैसी पीड़ा इन मजदूरों ने उठायी है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है और इसे महसूसने के लिए प्लेन और गाड़ी से उतर कर पैदल चलना होगा और चलते रहना होगा पूरा दिन...पूरी रात फिर एक दिन और फिर एक रात और ऐसे-एसे कितने दिन और कितनी राते चलते रहना होगा तब शायद हम उनके दर्द को महसूस कर पाएं। पैदल चलते मजदूरों के जख्म पैट को प्राइवेट प्लेन में घर जाते देख और गहरे हो जाते हैं। एक पैट को घर पहुंचाने की जितनी कीमत चुकायी जा रही है उसमें एक हजार से ज्यादा मजदूरों को घर पहुंचाया जा सकता है। लेकिन इन गरीब मजदूरों की किस्मत अमीरों के कुत्तों की किस्मत के आगे कुछ भी नहीं। शायद तभी कुत्ते प्राइवेट प्लेन में सफर कर रहे हैं और गरीब मजदूरों के लिए सियासत की ट्रेन भी मय्यसर नहीं। लॉकडाउन से पहले का आंकड़ा देखें तो जनसंख्यां वृद्धि के कारण देश में अमीरों की संख्या में बढ़ोतरी हुई लेकिन गरीबों की संख्या में कमी नहीं आई है। देश की जीडीपी का 20 प्रतिशत हिस्सा केवल 100 लोगों तक सिमित है। पालतु जानवरों पर दया दिखानी चाहिए उनकी भावना का भी ख्याल रखा जाना चाहिए लेकिन मजदूरों की भावना की हत्या की कीमत पर नहीं।

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