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13 जून: बलिदान दिवस “राजा बलभद्र सिंह” .. भाई का विवाह और गर्भवती पत्नी को छोड़ कर कूद गए 1857 संग्राम में और कई अंग्रेजो का वध कर के हो गए बलिदान

वीरता की एक और जीवंत मूर्ति जो सदा रहेगी अमर..

Rahul Pandey
  • Jun 13 2020 9:59AM

ये वो योद्धा था जिनका जिक्र शायद किताबों में न मिले . यद्द्पि इन्होने किताबों में खुद को लिखवाने के लिए जंग भी नहीं लड़ी थी क्योकि इनके द्वारा बहाया गया रक्त निस्वार्थ रूप से भारत माता को स्वतंत्र करवाने के लिए था. इन्होने कभी खुद को आज़ादी का ठेकेदार भी घोषित नहीं किया .. असल में इन्होने अपने राजदरबार में बड़े बड़े योद्धा तैयार किये थे जो तीर तलवार और भालाओं के विशेषज्ञ थे जबकि आज़ादी के नकली ठेकेदारों ने अपने पास उसी समय चाटुकार इतिहासकारों और नकली कलमकारों की फ़ौज खड़ी की थी जिस से जब राजा बलभद्र सिंह जैसे योद्धा वीरगति पाएं तो वो उसका सारा श्रेय खुद से सकें और खुद को बता सकें की वो ही हैं भारत को मुक्त करवाने वाले ब्रिटिश बेड़ियों से .

ज्ञात हो की भारत की शस्त्र के साथ हुई क्रांति जिसे १८५७ का स्वातंत्र्य समर कहा जाता है उस युद्ध में भारत माँ को दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए तत्कालीन अखंड भारत देश का कोई कोना ऐसा नहीं था, जहाँ छोटे से लेकर बड़े तक, निर्धन से लेकर धनवान तक, व्यापारी से लेकर कर्मचारी और कवि, कलाकार, साहित्यकार तक सक्रिय न हुए हों. ये और बात है की उनका नाम नकली कलमकारों ने पन्नो में लिखना उचित न समझा हो क्योकि वो केवल एक या दो परिवार के चरणो में लोट कर अपने खाये गए नमक का हक अदा कर रहे थे और भारत माता के प्रति अपने कर्तव्य भूल चुके थे . फिलहाल स्वतंत्रता के उस महायुद्ध में किसी को सफलता मिली, तो किसी को निर्वासन और वीरगति.

उत्तर प्रदेश के वर्तमान समाय में बहराइच जिले और नेपाल की सीमा से लगने वाले क्षेत्र चहलारी की ये घटना है . चाहलारी बहराइच (उत्तर प्रदेश) के 18 वर्षीय जमींदार बलभद्र सिंह ऐसे ही वीर थे। उनके पास 33 गाँवों की जमींदारी थी. उनकी गाथाएँ आज भी लोकगीतों में जीवित हैं. 1857 में जब भारतीय वीरों ने मेरठ में युद्ध प्रारम्भ किया, तो अंग्रेजों ने सब ओर भारी दमन किया. १८५७ के युद्ध के आह्वान के समय भले ही अपने छोटे भाई छत्रपाल सिंह के विवाह के कारण योद्धा बलभद्र सिंह इस बैठक में आ नहीं पाये. लेकिन जब उन्हने पता चला की इतिहास उन्हें कायर कहेगा तो अपने शौर्य की पुकार पर योद्धा बलभद्र सिंह बारात को बीच में ही छोड़कर बौड़ी आ गये.

समूह में उन्हें सारी योजना बतायी गई, जिसके अनुसार सब राजा अपनी सेना लेकर महादेवा (बाराबंकी) में एकत्र होने थे. बलभद्र सिंह ने अंग्रेजो के संहार के लिए इस महायुद्ध में शामिल होने की पूरी सहमति व्यक्त की और अपने गाँव लौटकर सेनाओं को एकत्र कर लिया. भले ही ऐसी सीन आप फिल्मो में देख कर कई बार भावुक हुए हों लेकिन ऐसा जीवंत मामला आया था राजा बलभद्र सिंह जी के साथ. जब बलभद्र सिंह सेना के साथ प्रस्थान करने लगे, तो वे अपनी गर्भवती पत्नी के पास गये. वीर पत्नी ने उनके माथे पर रोली-अक्षत का टीका लगाया और अपने हाथ से कमर में तलवार बाँधी और युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया.

वहां की औरतें भी समझती थी की ये धरा अंग्रेजो के रक्त की प्यासी है. इसी प्रकार राजमाता ने भी बेटे को आशीर्वाद देकर अन्तिम साँस तक अपने वंश और देश की मर्यादा की रक्षा करने को कहा. बलभद्र सिंह पूरे उत्साह से महादेवा जा पहुँचे. महादेवा में बलभद्र सिंह के साथ ही अवध क्षेत्र के सभी देशभक्त राजा एवं जमींदार अपनी सेना के साथ आ चुके थे. वहाँ राम चबूतरे पर एक सम्मेलन हुआ, जिसमें सबको अलग-अलग मोर्चे सौंपे गये. बलभद्र सिंह को नवाबगंज के मोर्चे का नायक बनाया गया और उन्हें ‘राजा’ की उपाधि प्रदान करते हुए 100 गाँवों की जागीर प्रदान की गई.

बलभद्र सिंह ने 16,000 सैनिकों के साथ मई 1958 के अन्त में ओबरी (नवाबगंज) में मोर्चा लगाया. वे यहाँ से आगे बढ़ते हुए लखनऊ को अंग्रेजों से मुक्त कराना चाहते थे. उधर अंग्रेजों को भी सब समाचार मिल रहे थे. अतः ब्रिगेडियर होप ग्राण्ट के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी गयी, जिसके पास तोपखाने से लेकर अन्य सभी आधुनिक शस्त्र थे. अंग्रेज अपने खिलाफ खोले गए तमाम मोर्चों में बलभद्र सिंह का मोर्चा सबसे कड़े प्रतिरोध का मानते थे. अफ़सोस की बात ये रहे की ब्रिटिश फ़ौज में भी वो तमाम सैनिक लड़ रहे थे जो केवल वेतन और मेडल पाने की लालसा में अपने ही देश को अपने ही वार से पंहुचा रहे थे घाव. ये वो गद्दार थे जिनका जिक्र आज तक इतिहास में नहीं हुआ.

आज ही के दिन अर्थात 13 जून को दोनों सेनाओं में भयानक युद्ध हुआ. बलभद्र सिंह ने अपनी सेना को चार भागों में बाँट कर युद्ध किया. एक बार तो अंग्रेजों के पाँव उखड़ गये. पर तभी दो नयी अंग्रेज टुकड़ियाँ आ गयीं, जिससे पासा पलट गया. कई जमींदार और राजा डर कर भाग खड़े हुए. पर बलभद्र सिंह चहलारी वहीं डटे रहे. अंग्रेजों ने तोपों से गोलों की झड़ी लगा दी, जिससे अपने हजारों साथियों के साथ राजा बलभद्र सिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए. आज स्वतंत्रता संग्राम के उस अमर नायक को उनके बलिदान दिवस पर सुदर्शन परिवार बारम्बार नमन करते हुए उनकी गौरवगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का स्कल्प लेता है.

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