जिस तरह विधान सभा चुनाव में पूरे राज्य की सरकार चुनी जाती है। ठीक वैसे ही पंचायत चुनाव में गांव की सरकार का चुनाव होता है, इसलिए जिला पंचायत और क्षेत्र पंचायत चुनाव भी बेहद महत्वपूर्ण होते हैं।
इन चुनावों में राजनीतिक पार्टियां अपने चुनाव चिन्ह के साथ मैदान में नहीं उतरतीं हैं लेकिन वो उम्मीदवारों को समर्थन जरूर देती हैं और इस बार तो ये काम बड़े स्तर पर हुआ। लगभग सभी बड़ी पार्टियों ने उन उम्मीदवारों की सूची जारी की, जिन्हें उनका समर्थन हासिल था। इसीलिए इन उम्मीदवारों की हार, अब इन पार्टियों की हार मानी जा रही है, जिनमें बीजेपी के लिए नतीजे अप्रत्याशित रहे हैं।
अब ब्लाक प्रमुख के साथ जिला पंचायत अध्यक्ष पद का चुनाव होना है। इसमें भाजपा जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव को शीर्ष वरीयता पर रख रही है। भाजपा का लक्ष्य 75 में से 65 से अधिक जिलों में अपने अध्यक्ष बनाने का है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सरकारी आवास पर शनिवार रात को भाजपा की कमेटी की बैठक में जिला पंचायत अध्यक्ष के पद को लेकर अहम फैसला होने के साथ जिलेवार उम्मीदवारों पर भी विचार किया गया। जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में भारतीय जनता पार्टी प्रदेश के 65 से अधिक जिलों में अपना अध्यक्ष बनाने का लक्ष्य लेकर उतरेगी। कोर कमेटी की बैठक में संभावित उम्मीदवारों पर चर्चा के अलावा जीत को सुनिश्चित करने की कार्ययोजना पर विचार किया गया।
उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत की कुल 3 हजार 50 सीटों पर चुनाव हुआ। इनमें 1081 सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों की जीत हुई। 851 सीटों पर समाजवादी पार्टी के समर्थन वाले उम्मीदवार जीते। बीजेपी समर्थित 618 उम्मीदवारों की जीत हुई जबकि बीएसपी ने जिन उम्मीदवारों को समर्थन दिया था, उनमें से 320 ही चुनाव जीत पाए। इसके अलावा अपना दल के 47 और अजीत चौधरी की पार्टी RLD के समर्थन वाले 68 उम्मीदवार चुनाव में जीते। 65 सीटें कांग्रेस समर्थित उम्मीदवारों को मिलीं।
इससे पूर्व 2015 में जब उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव हुए थे, तब राज्य में अखिलेश यादव की सरकार थी और चुनाव में उनकी समाजवादी पार्टी के समर्थित उम्मीदवार जीते थे लेकिन बीजेपी ने इस ट्रेंड को तोड़ दिया। यानी बीजेपी ने एक ऐसा रिकॉर्ड बना दिया, जो वो शायद कभी बनाना नहीं चाहती होगी। बड़ी बात ये है कि अयोध्या, प्रयागराज, वाराणसी, कानपुर और मथुरा में समाजवादी पार्टी ने बीजेपी को आसानी से पछाड़ दिया। ये वो जिले हैं, जहां बीजेपी का काफी दबदबा माना जाता है और प्रधानमंत्री खुद वाराणसी से सांसद हैं लेकिन बीजेपी यहां हार गई।
इन चुनावों में भाजपा को अपेक्षित सफलता न मिल पाने से पार्टी के अंदर काफी उथल पुथल है। अपनी विफलता से सबक लेते हुए पार्टी कुछ सकारात्मक करने के मूड में दिख रही है। ऐसा करने के लिए पार्टी और सरकार पर खासा दबाव है। हो भी क्यों न... क्योंकि विधानसभा चुनावों में अब करीब 8 माह का ही समय शेष है। अगर इन चुनाव परिणामों को विधानसभा चुनाव का सेमी फाइनल मान लिया जाय तो इससे पार्टी के समक्ष एक बड़ी चुनौती है। पार्टी हर हाल में इस चुनौती से पार पाना चाहती है।