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28 फ़रवरी- पूज्य शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी पुण्यतिथि. हिन्दू विरोधी राजनीति ने इन्हें भी दी अंतहीन प्रताड़ना क्योंकि ये रक्षा कर रहे थे धर्म की

क्या - क्या सहा है हमारे संतो ने जानिये पूज्यनीय के जीवन से.

Rahul Pandey
  • Feb 28 2021 1:20PM
वो प्रतीक थे धर्मरक्षा के , वो प्रेरणा था हर उस धर्म रक्षक की जिसने सत्य सनातन के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया हो .. शत्रु कितना भी बलशाली हो लेकिन उसको सत्य के आगे घुटने टेकने ही पड़ते हैं इसको देखना और जानना है वो पूज्यनीय गुरुदेव की जीवनी को पढ़ कर जाना जा सकता है . 

झूठ और फरेब के आगे सत्य की लड़ाई थी जिसमे झूठे लोगों की संख्या ज्यादा होने के बाद भी उनको घुटने टेकने पड़े थे . शाश्वत पवित्रता की पहिचान थे गुरु जी जिनको अधर्मी ने हर प्रकार से हानि पहुचा कर सनातन को बदनाम करने की कोशिश की थी पर वो भूल रहे थे कि उनकी लड़ाई धर्म से थी ..

विदित हो कि सर्वमान्य है कि शंकराचार्य की पदवी हिंदुत्व की सर्वोच्च पद माना जाता है . ये वो पद है जिसको भगवान् के बाद दूसरे पूज्यनीय रूप में देखा जाता है . अनेक प्रकार के कर्मकाण्ड एवं पूजा आदि के कारण प्रायः शंकराचार्य मन्दिर-मठ तक ही सीमित रहते हैं। शंकराचार्य की चार प्रमुख पीठों में से एक कांची अत्यधिक प्रतिष्ठित है। 

देवलोक वासी शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती इन परम्पराओं को तोड़कर निर्धन बस्तियों में जाते थे और इसके चलते ही वो निर्धन धर्मांतरण से बच गये थे .बाद में उनकी यही छवि धर्मांतरण के दोषियों को खलने लगी क्योकि पूज्य शंकराचार्य के रहते उनकी दाल किसी भी हाल में गलने वाली नहीं थी .. 

इस प्रकार पूज्य शंकारचार्य जी ने अपनी छवि अन्यों निष्क्रिय लोगों से काफी अलग बनाई थी । हिन्दू संगठन के कार्यों में वे बहुत रुचि लेते थे । इसी यद्यपि इस कारण उन्हें अनेक गन्दे आरोपों का सामना कर जेल की यातनाएँ भी सहनी पड़ीं पर उनके खिलाफ साजिश रचने वालों को भी परमात्मा ने घोर यातनाएं दी .. 

इश्वर ने उनके साथ न्याय किया और दोषियों को दंड दिया . पूज्यनीय श्री श्री जयेन्द्र सरस्वती जी के बचपन का नाम सुब्रह्मण्यम था। उनका जन्म 16 जुलाई, 1935 को तमिलनाडु के इरुलनीकी कस्बे में श्री महादेव अय्यर के घर में हुआ था। पिताजी ने उन्हें नौ वर्ष की अवस्था में वेदों के अध्ययन के लिए कांची कामकोटि मठ में भेज दिया। 

वहाँ उन्होंने छह वर्ष तक ऋग्वेद व अन्य ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। मठ के 68 वें आचार्य चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती जी ने उनकी प्रतिभा देखकर उन्हें उपनिषद पढ़ने को कहा। सम्भवतः वे सुब्रह्मण्यम में अपने भावी उत्तराधिकारी को देख रहे थे जो बाद में आगे चल कर सही भी साबित हुई ।

आगे चलकर उन्होंने अपने पिता के साथ अनेक तीर्थों की यात्रा की। वे भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन के लिए तिरुमला गये और वहाँ उन्होंने सिर मुण्डवा लिया। 22 मार्च, 1954 उनके जीवन का महत्वपूर्ण दिन था, जब उन्होंने संन्यास ग्रहण किया। 

सर्वतीर्थ तालाब में कमर तक जल में खड़े होकर उन्होंने प्रश्नोच्चारण मन्त्र का जाप किया और यज्ञोपवीत उतार कर स्वयं को सांसारिक जीवन से अलग कर लिया। इसके बाद वे अपने गुरु स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती द्वारा प्रदत्त भगवा वस्त्र पहन कर तालाब से बाहर आये। 

इस देशाटन से वो भारत में धर्म पर वार कर रही कुसंस्कृतियो को भी जान और पहिचान चुके थे . इसके बाद 15 वर्ष तक उन्होंने वेद, व्याकरण मीमाँसा तथा न्यायशास्त्र का गहन अध्ययन किया। उनकी प्रखर साधना देखकर कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर उनका नाम जयेन्द्र सरस्वती रखा। 

अब उनका अधिकांश समय पूजा-पाठ में बीतने लगा; पर देश और धर्म की अवस्था देखकर कभी-कभी उनका मन बहुत बेचैन हो उठता था। वे सोचते थे कि चारों ओर से हिन्दू समाज पर संकट घिरे हैं; पर हिन्दू समाज के अधिकतर लोग अपने तुच्छ स्वार्थ में ही व्यस्त रहते थे ..

इन समस्याओं पर विचार करने के लिए वे एक बार मठ छोड़कर कुछ दिन के लिए एकान्त में चले गये। वहाँ से लौटकर उन्होेंने पूजा-पाठ एवं कर्मकाण्ड के काम अपने उत्तराधिकारी को सौंप दिये और स्वयं निर्धन हिन्दू बस्तियों में जाकर सेवा-कार्य प्रारम्भ करवाये। 

उन्हें लगता था कि इस माध्यम से ही निर्धन, अशिक्षित एवं वंचित हिन्दुओं का मन जीता जा सकता है। उन्होंने मठ के पैसे एवं भक्तों के सहयोग से सैकड़ों विद्यालय एवं चिकित्सालय आदि खुलवाये। इससे तमिलनाडु में हिन्दू जाग्रत एवं संगठित होने लगे। 

धर्मान्तरण की गतिविधियों पर रोक लगी; पर न जाने क्यों वहाँ के सत्ताधीशो और कुछ चुनावी पार्टियों को वो अपनी सत्ता के मार्ग में उन्हें बाधक लगने लगे ..उसने षड्यन्त्रपूर्वक उन्हें जेल में डलवा दिया और अफ़सोस की बात ये रही कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष मीडिया भी उस समय बिना प्रमाणों के इन्ही पर अपनी आदत और स्वभाव के अनुसार चीखती रही..

पर वो शांत भाव से इश्वर पर सब छोड़ चुके थे जिसके बाद उन पर लगे तमाम आरोप न्यायालय में झूठ सिद्ध हुए। जनता ने भी उन सभी साजिशकर्ताओ को पहिचान कर सत्ता से बेदखल कर दिया और इस साजिश में शामिल तमाम लोगों की वो दुर्गति हुई जिसका गवाह संसार बना . 

आख़िरकार अंतिम सांस तक धर्म की रक्षा करने वाले पूज्यनीय कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य श्री जयेंद्र सरस्वती का 83 साल की उम्र में आज ही अर्थात 28 फरवरी 2018 को निधन हो गया था. आज उनकी पुण्यतिथि पर सुदर्शन न्यूज़ परिवार उन्हें बारम्बार नमन करते हुए उनकी पावन यशगाथा सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेता है .

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