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18 जून-: बलिदान दिवस रणचंडी रानी लक्ष्मीबाई जी. नारी शक्ति की वो प्रतीक जिनका नहीं है दुनिया मे कोई अन्य उदाहरण

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी.

Rahul Pandey
  • Jun 18 2021 5:29AM
नकली कलमकारों व चाटुकार इतिहासकारों द्वारा भले ही तमाम वीर व वीरांगनाओं के इतिहास को आम जनता ने जैसे तैसे छीन कर खुद से ही याद रखा हो और सच्चे सूरमाओं को विस्मृत नहीं होने दिया हो , 

लेकिन अभी भी तमाम ऐसे गद्दारों के नाम सामने आने बाकी हैं जिनकी गद्दारी की कीमत भले ही अंग्रेजो ने उन्हें मुहमांगी दी जो पर दुष्परिणाम न सिर्फ पूरे राष्ट्र, सभ्यता व संस्कृति को झेलनी पड़ी बल्कि इतिहास तक को रोना पड़ा है ..

 उदाहरण के लिए भगत सिंह के खिलाफ गवाही किन किन भारतीयों ने दी ? क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल के खिलाफ खड़ा हुआ वकील किस का रिश्तेदार था ?

 चंद्रशेखर आज़ाद को घेर कर मारने वाला हिंदुस्तानी पुलिस अफसर कौन था व आज माँ भारती के लिए अपना बलिदान देने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के खिलाफ मुखबिरी करने वाला खानदान या परिवार कौन था ? ये वो पावन प्रतिमूर्तियां हैं जो अपनी गौरवगाथा से संसार को प्रकाशित कर के चली गयी . 

ये वो पावन शौर्यपुंज हैं जिनकी धमक से ब्रिटिश धरती तक हिल गयी थी और इनके साथ इतिहास के नकली झोलाछाप लेखकों ने अन्याय किया क्योकि जिनका अधिकार स्वर्णिम स्याही से लिखे जाने का था उनको नीली स्याही से भी उचित सम्मान नहीं दिया गया जबकि आज़ादी की सारी ठेकेदारी के एक ही परिवार के आस पास ला कर रख दी गयी. 

आईये जानते हैं भारत की आजादी की सशत्र क्रान्ति की ज्वाला में स्वाहा हुए तमाम नामो में सबसे प्रमुखों में से एक रानी लक्ष्मीबाई जी के बारे में.

ज्ञात हो कि लक्ष्मीबाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी थीं और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध बिगुल बजाने वाले वीरों में से एक थीं.

 वे ऐसी वीरांगना थीं जिन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में ही ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से मोर्चा लिया और रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हो गयीं परन्तु जीते जी अंग्रेजों को अपने राज्य झाँसी पर कब्जा नहीं करने दिया. 

भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थ में आदर्श वीरांगना थीं.

कहा जाता है कि सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नहीं घबराता है। प्रलोभन उसे कर्तव्य पालन से विमुख नहीं कर सकते. उसका लक्ष्य उदार और उच्च होता है, उसका चरित्र अनुकरणीय होता है. 

अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह सदैव आत्मविश्वासी, कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ होता है. ऐसी ही थीं वीरांगना लक्ष्मीबाई जिन्हें आज ही प्राप्त हुई थी वीरगति .

 ये नारी शकित की वो प्रतीक थीं जिनके बारे में अगर बेहतर ढंग से बताया जाता तो आज हमारे राष्ट्र की नारियो को लव जिहाद या अन्य तमाम समस्याओं से जूझने के लिए इतना संघर्ष न करना पड़ता.

लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जिले में 19 नवम्बर 1828 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उसके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर परिवारवाले उन्हें स्नेह से मनु पुकारते थे.

 उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था और माता का नाम भागीरथी था. जब लक्ष्मीबाई मात्र चार साल की थीं तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया.

 उनके पिता मराठा बाजीराव की सेवा में थे।.माँ के निधन के बाद घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये.

 वहां मनु के स्वभाव ने सबका मन मोह लिया और लोग उसे प्यार से “छबीली” कहने लगे. शास्त्रों की शिक्षा के साथ-साथ मनु को शस्त्रों की शिक्षा भी दी गयी.

सन 1842 में मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और इस प्रकार वे झाँसी की रानी बन गयीं और उनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई कर दिया गया.

 सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव को पुत्र रत्न की पारपत हुई पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी. उधर गंगाधर राव का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था. 

स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी. उन्होंने वैसा ही किया और पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव परलोक सिधार गए। उनके दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया.

 ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी की राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत अंग्रेजों ने बालक दामोदर राव को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और ‘डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स’ नीति के तहत झाँसी राज्य का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में करने का फैसला कर लिया.

हालाँकि रानी लक्ष्मीबाई ने अँगरेज़ वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया पर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कोई फैसला हो ही नहीं सकता था इसलिए बहुत बहस के बाद इसे खारिज कर दिया गया. 

अंग्रेजों ने झाँसी राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगादाहर राव के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काटने का हुक्म दे दिया. 

अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़ने को कहा जिसके बाद उन्हें रानीमहल में जाना पड़ा. 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार कर लिया. रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झाँसी की रक्षा करने का निश्चय किया.

27 फरवरी 1854 को डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तकपुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंगरेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी.

पोलेटिकल एजेंट की सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी.’ 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार हुआ. 

झांसी की रानी ने पेंशन अस्वीकृत कर दी व नगर के राजमहल में निवास करने लगीं. यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ. 

अंगरेजों की राज्य लिप्सा की नीति से उत्तरी भारत के नवाब और राजे-महाराजे असंतुष्ट हो गए और सभी में विद्रोह की आग भभक उठी.

रानी लक्ष्मीबाई ने इसको स्वर्णावसर माना और क्रांति की ज्वालाओं को अधिक सुलगाया तथा अंगरेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बनाई. 

भारत की जनता में विद्रोह की ज्वाला भभक गई.समस्त देश में सुसंगठित और सुदृढ रूप से क्रांति को कार्यान्वित करने की तिथि 31 मई 1857 निश्चित की गई, 

लेकिन इससे पूर्व ही क्रांति की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो गई और 7 मई 1857 को मेरठ में तथा 4 जून 1857 को कानपुर में, भीषण विप्लव हो गए. कानपुर तो 28 जून 1857 को पूर्ण स्वतंत्र हो गया. 

अंगरेजों के कमांडर सर ह्यूरोज ने अपनी सेना को सुसंगठित कर विद्रोह दबाने का प्रयत्न किया. सन 1858 के जनवरी महीने में अंग्रेजी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च में शहर को घेर लिया.

लगभग दो हफ़्तों के संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने शहर पर कब्जा कर लिया पर रानी लक्ष्मीबाई अपने पुत्र दामोदर राव के साथ अंग्रेजी सेना से बच कर भाग निकली. 

झाँसी से रणनीतिक रूप से निकल कर रानी लक्ष्मीबाई कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिलीं. तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई की संयुक्त सेना ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया.

 रानी लक्ष्मीबाई ने जी-जान से अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया पर आज ही के दिन अर्थात 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गयीं.

सुदर्शन परिवार आज नारीशक्ति की उस महान प्रतीक को बारम्बार नमन करते हुए उनकी गौरवगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेता है . झांसी की रानी अमर रहें …

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