सुदर्शन के राष्ट्रवादी पत्रकारिता को सहयोग करे

Donation

15 जुलाई:-अंतिम संस्कार हुआ था आज 1962 में चीन से लड़े योद्धा करमचंद कटोच जी का, जिनका शव मिला था 48 वर्ष के बाद

ऐसे महान भी जन्म लिए हैं भारत मे जिनका जीवन और जीवन के बाद भी समर्पित रहा है राष्ट्र के नाम

Rahul Pandey
  • Jul 15 2020 7:20AM

क्या देश इन वीरों को जनता है . यकीनन कुछ लोगो को छोड़ दें तो बाकी जा जवाब यही आएगा कि नहीं .. क्योकि उसे शायद और भी तमाम कार्य होंगे इसके अतिरिक्त . उन्हें फिल्मे देखनी होंगी . उन्हें चटकारे वाले कार्यक्रम देखने होंगे . उन्हें तमाम मजहबी कार्यों में शामिल होने जाना होगा .. ये उस फौजी की कहानी है जिसको जान कर आज भी आंसू आ जाया करते हैं कईयों की आँखों में . हर उसकी जो देश के लिए रखता है दर्द अपने सीने में.

जो भी व्यक्ति इस संसार में आया है, उसकी मृत्यु होती ही है। मृत्यु के बाद अपने-अपने धर्म एवं परम्परा के अनुसार उसकी अंतिम क्रिया भी होती ही है; पर मृत्यु के 48 साल बाद अपनी जन्मभूमि में किसी की अंत्येष्टि हो, यह सुनकर कुछ अजीब सा लगता है; पर हिमाचल प्रदेश के एक वीर सैनिक कर्मचंद कटोच के साथ ऐसा ही हुआ। 1962 में भारत और चीन के मध्य हुए युद्ध के समय हिमाचल प्रदेश में पालमपुर के पास अगोजर गांव का 21 वर्षीय नवयुवक कर्मचंद सेना में कार्यरत था। हिमाचल हो या उत्तरांचल या फिर पूर्वोत्तर भारत का पहाड़ी क्षेत्र, वहां के हर घर से प्रायः कोई न कोई व्यक्ति सेना में होता ही है। इसी परम्परा का पालन करते हुए 19 वर्ष की अवस्था में कर्मचंद थलसेना में भर्ती हो गया। प्रशिक्षण के बाद उसे चौथी डोगरा रेजिमेण्ट में नियुक्ति मिल गयी।

कुछ ही समय बाद महाधूर्त चीन ने भारत पर हमला कर दिया। हिन्दी-चीनी भाई-भाई की खुमारी में डूबे प्रधानमंत्री नेहरू के होश आक्रमण का समाचार सुनकर उड़ गये। उस समय भारतीय जवानों के पास न समुचित हथियार थे और न ही सर्दियों में पहनने लायक कपड़े और जूते। फिर भी मातृभूमि के मतवाले सैनिक सीमाओं पर जाकर चीनी सैनिकों से दो-दो हाथ करने लगे। उस समय कर्मचंद के विवाह की बात चल रही थी। मातृभूमि के आह्नान को सुनकर उसने अपनी भाभी को कहा कि मैं तो युद्ध में जा रहा हूं। पता नहीं वापस लौटूंगा या नहीं। तुम लड़की देख लो; पर जल्दबाजी नहीं करना।

उसे डोगरा रेजिमेण्ट के साथ अरुणाचल की पहाड़ी सीमा पर भेजा गया। युद्ध के दौरान 16 नवम्बर, 1962 को कर्मचंद कहीं खो गया। काफी ढूंढ़ने पर भी न वह जीवित अवस्था में मिला और न ही उसका शव। ऐसा मान लिया गया कि या तो वह बलिदान हो गया है या चीन में युद्धबन्दी है। युद्ध समाप्ति के बाद भी काफी समय तक जब उसका कुछ पता नहीं लगा, तो उसके घर वालों ने उसे मृतक मानकर गांव में उसकी याद में एक मंदिर बना दिया। लेकिन पांच जुलाई, 2010 को अरुणाचल की सीमा पर एक ग्लेशियर के पास सीमा सड़क संगठन के सैन्यकर्मियों को एक शव दिखाई दिया। पास जाने पर वहां सेना का बैज, 303 राइफल, 47 कारतूस, एक पेन और वेतन पुस्तिका भी मिले। साथ की चीजों के आधार पर जांच करने पर पता लगा कि वह भारत-चीन युद्ध में बलिदान हुए कर्मचंद कटोच का शव है। गांव में उसके चित्र और अन्य दस्तावेजों से इसकी पुष्टि भी हो गयी।

इस समय तक गांव में कर्मचंद की मां गायत्री देवी, पिता कश्मीर चंद कटोच और बड़े भाई जनकचंद भी मर चुके थे। उसकी बड़ी भाभी और भतीजे जसवंत सिंह को जब यह पता लगा, तो उन्होंने कर्मचंद की अंत्येष्टि गांव में करने की इच्छा व्यक्त की। सेना वालों को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। सेना ने पूरे सम्मान के साथ शहीद का शव पहले पालमपुर की होल्टा छावनी में रखा। वहां वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों ने उसे श्रद्धासुमन अर्पित किये। इसके बाद 15 जुलाई, 2010 को उस शव को अगोजर गांव में लाया गया। तब तक यह समाचार चारों ओर फैल चुका था। अतः हजारों लोगों ने वहां आकर अपने क्षेत्र के लाड़ले सपूत के दर्शन किये। इसके बाद गांव के श्मशान घाट में कर्मचंद के भतीजे जसवंत सिंह ने उन्हें मुखाग्नि दी। सेना के जवानों ने गोलियां दागकर तथा हथियार उलटकर उसे सलामी दी। बड़ी संख्या में सैन्य अधिकारी तथा शासन-प्रशासन के लोग वहां उपस्थित हुए। इस प्रकार 48 वर्ष बाद भारत मां का वीर पुत्र अपनी जन्मभूमि में ही सदा के लिए सो गया। वीर करमचन्द अमर रहें . जय हिन्द की सेना .

सहयोग करें

हम देशहित के मुद्दों को आप लोगों के सामने मजबूती से रखते हैं। जिसके कारण विरोधी और देश द्रोही ताकत हमें और हमारे संस्थान को आर्थिक हानी पहुँचाने में लगे रहते हैं। देश विरोधी ताकतों से लड़ने के लिए हमारे हाथ को मजबूत करें। ज्यादा से ज्यादा आर्थिक सहयोग करें।
Pay

ताज़ा खबरों की अपडेट अपने मोबाइल पर पाने के लिए डाउनलोड करे सुदर्शन न्यूज़ का मोबाइल एप्प

Comments

ताजा समाचार