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23 अगस्त- उड़ीसा में विधर्मियो ने आज ही टुकड़ों में काट डाला था हिन्दू धर्मगुरु स्वामी लक्ष्मणानंद जी को.. कुल्हाड़ी से काटे गए थे अंग

सत्य सनातन को बनाये और बचाये रखने की ये कीमत चुकानी पड़ी थी स्वामी जी को.

Rahul Pandey
  • Aug 23 2020 5:56AM
उड़ीसा को हिन्दू विहीन बनने से बचाने के लिए जिन सन्त जी ने अपने प्राणों का बलिदान धर्मांतरण के गुनहगारों के खिलाफ दिया था आज उन्ही धर्मरक्षक स्वामी लक्ष्मणानंद जी का बलिदान दिवस है. जितनी बेरहमी कभी ISIS , अल कायदा के आतंकियों ने नही दिखाई होगी उस से कही ज्यादा बड़ी बेरहमी दिखाई गयी थी हिंदुत्व के इस पुरोधा की सोची समझी हत्या में क्योंकि इनके रहते उड़ीसा के हिन्दू अपना धर्म त्यागने के लिए तैयार नहीं थे.

उन्हें कत्ल करने की पहले से भी बहुत प्रयास किये गए जिसमे कुछ प्रयास तो उन्हें डरा कर भगा देने के लिए थे पर उन्होंने अपना धर्म और स्थान नही छोड़ा था और अंगद के पैर की तरह डटे रहे. कत्ल वो था जिसमे कहीं न कहीं आज के सहिष्णुता के ठेकेदारों का परोक्ष समर्थन या दूसरे शब्दों में कहें तो मिली भगत थी. लेकिन अफसोस वामपंथ व तथाकथित सेक्युलर वर्ग इस पर रहा था खामोश और आज तक हालात वही हैं..

कंधमाल उड़ीसा का वनवासी बहुल पिछड़ा क्षेत्र है। पूरे देश की तरह वहां भी 23 अगस्त, 2008 को जन्माष्टमी पर्व मनाया जा रहा था। रात में लगभग 30-40 क्रूर चर्चवादियों ने फुलबनी जिले के तुमुडिबंध से तीन कि.मी दूर स्थित जलेसपट्टा कन्याश्रम में हमला बोल दिया। 84 वर्षीय देवतातुल्य स्वामी लक्ष्मणानंद उस समय शौचालय में थे। हत्यारों ने दरवाजा तोड़कर पहले उन्हें गोली मारी और फिर कुल्हाड़ी से उनके शरीर के टुकड़े कर दिये.

स्वामी जी का जन्म ग्राम गुरुजंग, जिला तालचेर (उड़ीसा) में 1924 में हुआ था। वे गत 45 साल से वनवासियों के बीच चिकित्सालय, विद्यालय, छात्रावास, कन्याश्रम आदि प्रकल्पों के माध्यम से सेवा कार्य कर रहे थे। गृहस्थ और दो पुत्रों के पिता होने पर भी जब उन्हें अध्यात्म की भूख जगी, तो उन्होंने हिमालय में 12 वर्ष तक कठोर साधना की; पर 1966 में प्रयाग कुुंभ के समय संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी तथा अन्य कई श्रेष्ठ संतों के आग्रह पर उन्होंने ‘नर सेवा, नारायण सेवा’ को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।

इसके बाद उन्होेंने फुलबनी (कंधमाल) में सड़क से 20 कि.मी. दूर घने जंगलों के बीच चकापाद में अपना आश्रम बनाया और जनसेवा में जुट गये। इससे वे ईसाई मिशनरियों की आंख की किरकिरी बन गये। स्वामी जी ने भजन मंडलियों के माध्यम से अपने कार्य को बढ़ाया। उन्होंने 1,000 से भी अधिक गांवों में भागवत घर (टुंगी) स्थापित कर श्रीमद्भागवत की स्थापना की। उन्होंने हजारों कि.मी पदयात्रा कर वनवासियों में हिन्दुत्व की अलख जगाई। उड़ीसा के राजा गजपति एवं पुरी के शंकराचार्य ने स्वामी जी की विद्वत्ता को देखकर उन्हें ‘वेदांत केसरी’ की उपाधि दी थी..

जगन्नाथ जी की रथ यात्रा में हर वर्ष लाखों भक्त पुरी जाते हैं; पर निर्धनता के कारण वनवासी प्रायः इससे वंचित ही रहते थे। स्वामी जी ने 1986 में जगन्नाथ रथ का प्रारूप बनवाकर उस पर श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की प्रतिमाएं रखवाईं। इसके बाद उसे वनवासी गांवों में ले गये। वनवासी भगवान को अपने घर आया देख रथ के आगे नाचने लगे। जो लोग मिशन के चंगुल में फंस चुके थे, वे भी उत्साहित हो उठे। 

जब चर्च वालों ने आपत्ति की, तो उन्होंने अपने गले में पड़े मज़हबी चिन्ह फेंक दिये। तीन माह तक चली रथ यात्रा के दौरान हजारों लोग हिन्दू धर्म में लौट आये। उन्होंने नशे और सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति हेतु जनजागरण भी किया। इस प्रकार मिशनरियों के 50 साल के षड्यन्त्र पर स्वामी जी ने झाड़ू फेर दिया।

स्वामी जी धर्म प्रचार के साथ ही सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों से भी जुड़े थे। जब-जब देश पर आक्रमण हुआ या कोई प्राकृतिक आपदा आई, उन्होंने जनता को जागरूक कर सहयोग किया; पर चर्च को इससे कष्ट हो रहा था, इसलिए उन पर नौ बार हमले हुए। हत्या से कुछ दिन पूर्व ही उन्हें धमकी भरा पत्र मिला था। इसकी सूचना उन्होंने पुलिस को दे दी थी; पर पुलिस ने कुछ नहीं किया। यहां तक कि उनकी सुरक्षा को और ढीला कर दिया गया। इससे संदेह होता है कि चर्च और नक्सली कम्युनिस्टों के साथ कुछ पुलिस वाले भी इस षड्यन्त्र में शामिल थे।

स्वामी जी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनकी हत्या के बाद पूरे कंधमाल और निकटवर्ती जिलों में वनवासी हिन्दुओं में आक्रोश फूट पड़ा। लोगों ने धर्मांतरण के अनेक केन्द्रों को जला दिया। विधर्म के समर्थक अपने गांव छोड़कर भाग गये। स्वामी जी के शिष्यों तथा अनेक संतों ने हिम्मत न हारते हुए सम्पूर्ण उड़ीसा में हिन्दुत्व के ज्वार को और तीव्र करने का संकल्प लिया है। धर्म रक्षा की उस महानतम पराकाष्ठा को आज उनके बलिदान दिवस पर सुदर्शन न्यूज बारम्बार नमन , वन्दन और अभिनन्दन करते हुए ऐसे बलिदानियों की गौरवगाथा को सदा जन जन तक पहुचने के संकल्प को दोहराता है .

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