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27 सितंबर: जन्मजयंती हिंदुत्व की महानतम विभूति, धर्मजागरण के सूत्रधार श्रीरामलोक वासी श्रद्धेय अशोक सिंहल जी.. जो आजीवन समर्पित रहे अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण के लिए

श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन के दौरान जिनकी हुंकार से रामभक्तों के हृदय हर्षित हो जाते थे, वे श्री अशोक सिंहल संन्यासी भी थे और योद्धा भी, पर वे स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक प्रचारक ही मानते थे. उनका जन्म आश्विन कृष्ण पंचमी (27 सितम्बर, 1926) को आगरा (उ.प्र.) में हुआ.

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  • Sep 27 2021 9:11AM
श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन के दौरान जिनकी हुंकार से रामभक्तों के हृदय हर्षित हो जाते थे, वे श्री अशोक सिंहल संन्यासी भी थे और योद्धा भी, पर वे स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक प्रचारक ही मानते थे. उनका जन्म आश्विन कृष्ण पंचमी (27 सितम्बर, 1926) को आगरा (उ.प्र.) में हुआ. सात भाई और एक बहिन में वे चौथे स्थान पर थे. मूलतः यह परिवार ग्राम बिजौली (जिला अलीगढ़, उ.प्र.) का निवासी था. उनके पिता श्री महावीर जी शासकीय सेवा में उच्च पद पर थे.

घर में संन्यासी तथा विद्वानों के आने के कारण बचपन से ही उनमें हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया. 1942 में प्रयाग में पढ़ते समय प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) ने उन्हें स्वयंसेवक बनाया.

उन्होंने अशोक जी की मां विद्यावती जी को संघ की प्रार्थना सुनायी. इससे प्रभावित होकर उन्होंने अशोक जी को शाखा जाने की अनुमति दे दी. 1947 में देश विभाजन के समय कुछ नेता सत्ता पाने की खुशी मना रहे थे, पर देशभक्तों के मन इस पीड़ा से सुलग रहे थे कि ऐसे सत्तालोलुप नेताओं के हाथ में देश का भविष्य क्या होगा ? अशोक जी भी उन्हीं में से एक थे. इस माहौल को बदलने हेतु उन्होंने अपना जीवन संघ को समर्पित कर दिया.

बचपन से ही उनकी रुचि शास्त्रीय गायन में रही. संघ के सैकड़ों गीतों की लय उन्होंने बनायी. उन्होंने काशी हिन्दू वि.वि. से धातुविज्ञान में अभियन्ता की उपाधि ली थी. 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा, तो वे सत्याग्रह कर जेल गये. वहां से आकर उन्होंने अंतिम परीक्षा दी और 1950 में प्रचारक बन गये. प्रचारक के नाते वे गोरखपुर, प्रयाग, सहारनपुर और फिर मुख्यतः कानपुर रहे. सरसंघचालक श्री गुरुजी से उनकी बहुत घनिष्ठता थी. कानपुर में उनका सम्पर्क वेदों के प्रकांड विद्वान श्री रामचन्द्र तिवारी से हुआ. अशोक जी अपने जीवन में इन दोनों का विशेष प्रभाव मानते थे. 1975 के आपातकाल के दौरान वे इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध हुए संघर्ष में लोगों को जुटाते रहे. 1977 में वे दिल्ली प्रांत (वर्तमान दिल्ली व हरियाणा) के प्रान्त प्रचारक बने.

1981 में डा. कर्णसिंह के नेतृत्व में दिल्ली में 'विराट हिन्दू सम्मेलन' हुआ; पर उसके पीछे शक्ति अशोक जी और संघ की थी. उसके बाद उन्हें 'विश्व हिन्दू परिषद' की जिम्मेदारी दे दी गयी. एकात्मता रथ यात्रा, संस्कृति रक्षा निधि, रामजानकी रथयात्रा, रामशिला पूजन, रामज्योति आदि कार्यक्रमों से परिषद का नाम सर्वत्र फैल गया. अब परिषद के काम में बजरंग दल, परावर्तन, गाय, गंगा, सेवा, संस्कृत, एकल विद्यालय आदि कई नये आयाम जोड़े गये. श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन ने तो देश की सामाजिक और राजनीतिक दिशा ही बदल दी. वे परिषद के 1982 से 86 तक संयुक्त महामंत्री, 1995 तक महामंत्री, 2005 तक कार्याध्यक्ष, 2011 तक अध्यक्ष और फिर संरक्षक रहे.

सन्तों को संगठित करना बहुत कठिन है, पर अशोक जी की विनम्रता से सभी पंथों के लाखों संत इस आंदोलन से जुड़े. इस दौरान कई बार उनके अयोध्या पहुंचने पर प्रतिबंध लगाये गये, पर वे हर बार प्रशासन को चकमा देकर वहां पहुंच जाते थे. उनकी संगठन और नेतृत्व क्षमता का ही परिणाम था कि युवकों ने छह दिसम्बर, 1992 को राष्ट्रीय कलंक के प्रतीक बाबरी ढांचे को गिरा दिया. कार्य विस्तार के लिए वे सभी प्रमुख देशों में गये. अगस्त-सितम्बर, 2015 में भी वे इंग्लैंड, हालैंड और अमरीका के दौरे पर गये थे.

अशोक जी काफी समय से फेफड़ों के संक्रमण से पीड़ित थे. इसी के चलते 17 नवम्बर, 2015 को उनका निधन हुआ. वे प्रतिदिन परिषद कार्यालय में लगने वाली शाखा में आते थे. अंतिम दिनों में भी उनकी स्मृति बहुत अच्छी थी. वे आशावादी दृष्टिकोण से सदा काम को आगे बढ़ाने की बात करते रहते थे. उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी, जब अयोध्या में विश्व भर के हिन्दुओं की आकांक्षा के अनुरूप श्री रामजन्मभूमि मंदिर का निर्माण होगा. आज धर्मरक्षक उन हिन्दू पुरोधा श्री अशोक सिंहल जी की जन्मजयंती पर उनको शत-शत नमन.

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