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लखनऊ का गर्व "अटल"...

लखनऊ के अटल और अटल का लखनऊ, आज अटल जी की दूसरी पुण्यतिथि, दुनिया से भले टल गए पर लखनऊ वासियों के हृदय में सदा रहेंगे अटल..

रजत मिश्र, उत्तर प्रदेश, ट्विटर- @rajatkmishra1
  • Aug 16 2020 2:35PM

आज भारत रत्न अटल बिहारी बाजपेयी की दूसरी पुण्यतिथि है। अटल बिहारी बाजपेयी का लखनऊ प्रेम जगजाहिर है। जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव आए लेकिन अटल जी कभी लखनऊ को नहीं भूले और न लखनऊ वाले ही उन्हें भूले। अटल अपने भाषणों में लखनऊ से जुड़ाव को व्यक्त करने से भी नहीं चूकते थे। लखनऊ उनके प्रचारक से संपादक और संपादक से प्रधानमंत्री तक के सफर का गवाह रहा है। अटल प्रचारक तो थे ही। लखनऊ आए तो लोगों से संपर्क करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर आ पड़ी। यहां रहने का उनका कोई स्थायी ठिकाना नहीं था। कुछ दिन वह वर्तमान उप मुख्यमंत्री डॉ. दिनेश शर्मा के पिता पं. केदारनाथ शर्मा (पाधाजी) के यहां भी रुके।

पं. दीनदयाल उपाध्याय पहले से ही यहां रहा करते थे। बाद में अटल का निवास मारवाड़ी गली के प्रसिद्ध कलंत्री निवास में भी रहा। कुछ दिन सदर में रहे तो एपी सेन रोड स्थित एक भवन में भी, जिसे अब किसान संघ के कार्यालय के नाम से जाना जाता है में भी वे कुछ दिन रहे। लखनऊ अटल के हिंदी प्रेम का भी गवाह रहा है। नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री थे। उन्होंने हिंदी दिवस (14 सितंबर) से ठीक एक दिन पहले उर्दू को राज्य की द्वितीय राजभाषा घोषित कर दिया।

प्रदेश के वयोवृद्ध साहित्यकार श्रीनारायण चतुर्वेदी (अब स्वर्गीय) ने इसके विरोध में ‘भारत-भारती’ सम्मान लौटा दिया। सम्मान के साथ मिले एक लाख रुपये भी सरकार को लौटा दिए। विरोध में राजभवन तक जुलूस भी निकाला। वाजपेयी को पता चला तो उन्होंने तुरंत चतुर्वेदी को सम्मानित करने की घोषणा की और राशि संग्रह करके उन्हें सम्मानित किया।

इसे संयोग ही कहा जाएगा कि जो लखनऊ अटल के दूसरे घर जैसा रहा, उसी ने उन्हें ठुकराने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। उनका यहां से सासंद बनने का सपना शुरुआती दिनों में पूरा नहीं हो पाया। वे 1957 में पहली बार यहां से लोकसभा चुनाव लड़े लेकिन कांग्रेस के पुलिन बिहारी बनर्जी से हार गए। उन्होंने 1962 में भी यहां भाग्य आजमाया लेकिन बात नहीं बनी। नतीजतन उन्होंने लखनऊ से चुनाव न लड़ने में ही भलाई समझी। पर, लखनऊ आना-जाना बना रहा। उन्होंने लखनऊ में कई प्रदर्शनों का नेतृत्व किया। लोगों के पारिवारिक कार्यक्रमों में भी आते-जाते रहे।

आखिरकार उन्होंने 1991 में फिर यहां से लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया। इस चुनाव में वे कहते भी थे, ‘लखनऊ वालों ने अगर सोच लिया था कि मुझसे पीछा छूट जाएगा तो यह नहीं होने वाला। इतनी आसानी से लखनऊ के लोग मुझसे रिश्ता नहीं तोड़ सकते। मेरा नाम भी अटल है, देखता हूं कब तक मुझे यहां के लोग सांसद नहीं बनाएंगे’ आखिरकार वे चुनाव जीते और लखनऊ से सांसद बनने का उनका सपना पूरा हुआ। इस जीत के बाद तो अटल लखनऊ के लिए अजेय हो गए। डॉ. कर्ण सिंह हों या राम जेठमलानी, राज बब्बर हों या मुजफ्फर अली, अटल के करिश्मे के आगे कोई नहीं टिक पाया। वे 2004 तक यहां से पांच बार सांसद रहे।

लखनऊ से 2009 में उनके उत्तराधिकारी के रूप में चाहे लालजी टंडन लड़े हों या राजनाथ सिंह। सभी अटल के नाम पर ही लड़े और जीते। आज अटल जी नहीं है पर यह सत्य है कि लखनऊ और अटल को कोई कभी अलग नहीं कर पाएगा।

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